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कुन्दकुन्द श्रावकाचार
अजीर्णे पुनराहारो गृह्यमाणः प्रकोपयेत् । वातं पित्तं तथा श्लेष्मदोषमाशु शरीरिणाम् ॥२३ रोगोत्पत्तिः किलाजीर्णाच्चतुर्धा तत्पुनः स्मृतः । रसशेषाम-विष्टब्ध-विपक्कादिविभेदतः ॥२४
शेषे भवेज्जृम्भा समुद्गारस्तथामिके । अङ्गभङ्गश्च विष्टब्धे धूमोद्गारः विपक्कतः ॥ २५ निद्रानुवमन - स्वेद - जलपानादिकर्मभिः । सदा पथ्या विवादान्ता शान्तिमायात्यनुक्रमात् ॥२६ स्वस्थानस्थेषु दोषेषु जीर्णेऽभ्यवहृते पुनः । ख्यातो स्पष्टो शकृन्मूत्रवेगौ वातानुलोम्यतः ॥२७ स्रोतोमुखहृद्गारा विशुद्धाः स्युः क्षणात्तथा । स्पष्टत्वलब्धये (?) स्यातां तथेन्द्रियशरीरयोः ॥२८ अतिप्रातश्च सन्ध्यायां रात्रौ कुर्वन् पथि व्रजन् ।
सव्याघ्रौ दत्तपाणिश्च नाद्यात्पाणिस्थितं तथा ॥२९
संकाशे सातपे सान्धकारे द्रुमतले तथा । कदाचिदपि नाश्नीयादूर्ध्वोकृत्य च तजंमीम् ॥३० अधौतमुखहस्ताङ्घ्रिनंग्नश्च मलिनांशुकः । सव्यहस्तेन नाश्नीयात्पात्रे भुञ्जीत न क्वचित् ॥३१ एकवस्त्रान्वितश्चार्द्र वासोवेष्टितमस्तकः । अपवित्रोऽतिगाद्धचंश्च न भुञ्जीत विचक्षणः ॥ ३२
बल और धर्मको बढ़ाता है ||२२|| अन्नका अजीर्ण होनेपर ग्रहण किया जानेवाला आहार शरीरधारियों के वात, पित्त और कफके दोषको शीघ्र प्रकुपित करता है ||२३|| अजीर्णसे जिन रोगोंकी उत्पत्ति होती है, वे रस- शेष, आम-विकार, विष्टब्धता और विपक्वता आदिके भेदसे चार प्रकारके माने गये हैं ||२४|| रस- शेष होनेपर जंभाई आती है, आम-विकार होनेपर डकारें आती हैं, विष्टब्धता होनेपर अंग-भंग होता है और विपक्वतासे घूमोद्गार ( खट्टी डकारोंका आना ) होता है || २५ || इन चारों दोषोंसे आक्रान्त जो मनुष्य अपने दोषोंका अन्त करना चाहते हैं उन्हें अनुक्रमसे निद्रा लेना, वमन करना, प्रस्वेद ( पसीना ) लेना और जलपान आदि करना चाहिए । भावार्थ - रसशेष अजीर्णके होनेपर निद्रा लेवे, आम-विकारके होनेपर वमन करे, विष्टब्धता के होनेपर पसीना लेवे और विपक्वताके होनेपर जलको खूब पीवे । इन उपायोंसे शान्ति प्राप्त होती है तथा पथ्या (हरड) तो चारों प्रकारोंके अजीणोंमें सदा निर्विवाद गुणकारी है ॥२६॥ चारों प्रकारके अजीर्ण दोषोंके स्वस्थानस्थ हो जानेपर अर्थात् शान्त हो जानेपर और वात, पित्त, कफके साम्य होनेपर, तथा पुनः खाये गये भोजनके जीर्ण अर्थात् भलीभाँति से परिपाक होनेपर वातकी अनुलोमतासे मल और मूत्रका वेग स्पष्ट स्वाभाविकरूपसे होने लगता है, यह प्रख्यात ही है ||२७|| उपर्युक्त चारों प्रतीकारोंसे शरीरके मल-प्रवाही स्रोत, मुख, हृदय और उद्गार ( डकार ) क्षणमात्रमें विशुद्ध (निर्मल) हो जाते हैं, तथा शरीर और इन्द्रियोंमें स्पष्टता और स्फूत्तिकी प्राप्ति होती है ॥२८॥
अति प्रातःकालमें, सायंकालमें, रात्रिमें मार्ग में गमन करते हुए और वाम पैरपर हाथ रखकर हाथमें रखी वस्तु कभी नहीं खाना चाहिए ||२९|| सूर्यके आतापवाले स्थानपर, संकाश (तत्सदृश उष्णस्थान) स्थानपर, अन्धकारयुक्त मकानमें और वृक्षके नीचे बैठकर तथा तर्जनीको ऊँची करके कदाचित् भी नहीं खाना चाहिए ||३०|| बिना मुख, हाथ और पैरोंको धोये, नंगे शरीर और मलिन वस्त्र पहने हुए तथा वाम हाथसे कभी नहीं खावे । तथा कहींपर किसीके पात्र में अथवा जिस पात्रमें भोजन बना हो उसी पात्रमें भी भोजन नहीं करना चाहिए ॥३१॥ एक वस्त्र पह्निकर और गीले वस्त्रसे मस्तकको ढककर, अपवित्रता और अतिगृद्धतासे बुद्धिमान् पुरुषको कभी नहीं खाना चाहिए ||३२||
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