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________________ ३४ श्रावकाचार-संग्रह कोविदोऽथवा मूों मित्रं वा यदि वा रिपुः । निदानं स्वर्गभोगानामशनावसरेऽतिथिः ॥१२ न प्रश्नो जन्मनः कार्यो न गोत्राचारयोरपि । श्रुति-सांख्यादिमूर्धानां सर्वधर्ममयोऽतिथिः ॥१३ तिथिपर्वहर्षशोकास्त्यक्ता येन महात्मना । धीमद्धिः सोऽतिथिर्मान्यः परः प्राणिको मतः ॥१४ मन्दिराद्विगुणो यस्य गच्छत्यतिथिपुङ्गवः । जायते महती तस्य पुण्यहानिर्मनस्विनः ॥१५ उक्तं चअतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहादतिनिवर्तते । स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति ॥१६ क्षुधाक्रान्तस्य जीवस्य पश्च नश्यन्त्यसंशयम् । सुवासनेन्द्रियबलं धर्मकृतिरती स्मृतिः ॥१७ एकतः कुरुते वाञ्छां वासवः कोटकोऽन्यतः । आहारस्य ततो दर्दान देयं शुभार्थिभिः ॥१८ देवसाधुपुरस्वामिस्वजने व्यसने सति । ग्रहणे न च भोक्तव्यं सत्यां शक्तौ विवेकिना ॥१९ पितुर्मातुः शिशूनां च गर्भिणीवृद्धरोगिणाम् । प्रथमं भोजनं दत्त्वा स्वयं भोक्तव्यमुत्तमः ॥२० चतुष्पदानां सर्वेषां घृतानां च तथा नृणाम् । चिन्तां विधाय धर्मज्ञः स्वयं भुजीत नान्यथा ॥२१ जलपानं पिपासायां बुभुक्षायां च भोजनम् । आयुर्बलं च धर्म च संवर्धयति देहिनाम् ॥२२ घर पर आया हो तो वह अतिथि विशेष रूपसे मनीषी पुरुषके द्वारा पूजनेके योग्य है ॥११॥ भोजनके समय पर घर आया हुआ अतिथि चाहे विद्वान् हो, अथवा मूर्ख हो, मित्र हो, यदि वा शत्रु हो, किन्तु वह गृहस्थके लिए स्वर्गके भोगोंका कारण है ॥१२॥ भोजनके समय घरपर आये हुए अतिथिसे न जन्मका प्रश्न करना चाहिए कि तुम्हारा किस कुलमें जन्म हुआ है ? और न गोत्र और आचारको भी पूछना चाहिए। तुमने क्या पढ़ा है, ऐसा शास्त्र-विषयक एवं सांख्यादि वेष-सम्बन्धी भी प्रश्न नहीं पूछना चाहिए, क्योंकि अतिथि सर्वदेव स्वरूप माना गया है ॥१३॥ जिस महात्माने तिथि, पर्व, हर्ष और शोकका त्याग कर दिया है, बुद्धिमानोंके द्वारा वह अतिथि मान्य हैं । इससे भिन्न पुरुष प्राणिक ( पाहुना ) माना जाता है ॥१४॥ जिस गृहस्थके घरसे श्रेष्ठ अतिथि आहारके बिना जाता है, उस मनस्वीके पुण्यकी भारी हानि होती है ॥१५॥ कहा भी है-जिसके घरसे अतिथि निराश होकर वापिस लौटता है, वह उस गृहस्थके लिए दुष्कृत (पाप) देकर और पुण्य लेकर जाता है ।।१६।। भूखसे पीड़ित पुरुषके सुवासना (उत्तम भावना) इन्द्रिय-बल, धर्म-कार्य, धर्मानुराग और स्मरण शक्ति ये पाँच कार्य निःसन्देह नष्ट हो जाते हैं ॥१७॥ एक ओर देव-पुरुष आहार देनेकी इच्छा करता है और दूसरी ओर कीटक (क्षुद्र प्राणी) लेनेकी इच्छा करता है । इसलिए कल्याणके इच्छुक दक्ष जनोंको आहारका दान अवश्य ही देना चाहिए ॥१८॥ देव, साधु, नगरका स्वामी और स्वजन इनके कष्टमें पड़नेपर तथा सूर्य-चन्द्रके ग्रहण होने पर विवेकी पुरुषको शक्तिके होते हुए भोजन नहीं करना चाहिए ॥१९॥ पिताको, माताको, बालकोंको गभिणी स्त्रीको, वृद्ध जनोंको और रोगियोंको पहिले भोजम देकर पीछे उत्तम पुरुषोंको स्वयं भोजन करना चाहिए ॥२०॥ घरपर रखे हुए गाय, भैंस आदि चौपायोंकी, तथा अपने आश्रित मनुष्योंकी भोजन-सम्बन्धी चिन्ता करके धर्मज्ञ पुरुषको पीछे स्वयं भोजन करना चाहिए, अन्यथा नहीं ॥२१॥ प्यास लगनेपर जलपान करना और खानेको इच्छा होनेपर भोजन करना प्राणियोंके आयु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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