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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार मौनं कुर्याद्यदि स्वामी युक्तमप्यवमन्यते । प्रभोरलेन कुर्याच्च वैरिणो गुणकीर्तनम् ॥१०० प्रभोः प्रसादेप्राप्तेऽपि प्रकृति व कोपयेत् । व्यापारितश्च कार्येषु याचेताध्यक्ष पौरुषम् ॥१०१. कोपप्रसादकैश्चिह्न रुक्तिभिः सञ्जयाऽथवा । अनुरक्तं विरक्तं च विजानीयात्प्रभोमनः ।।१०२ हर्षो दृष्टे धृतिः पार्वे स्थिते वासनदापनम । स्निग्धोक्तिरक्तकारित्वं प्रसन्नप्रभुलक्षणम् ॥१०३ आपयुक्तो हि नालोकेन्मानहानिरदर्शनम् । दोषोक्तिरप्रदानं च विरक्तप्रभुलक्षणम् ॥१०४ दोषैकेण न तत्याज्यः सेवकः सगुणोऽधिपैः । धमदोषभयावह्निः किमु केनाप्यपास्यते ॥१०५ चलादपि चल: इलाघ्यो धनात्पुरुषसङमहः । असदप्यमंते वित्तं पुरुषश्च व्यवसायिभिः॥१०६ अनल्पैः किमहो जल्पव्यवसायः श्रियो मुखम् । अर्ध्या श्रीः सदयाकृत्ये दान-भोगकरी चया ॥१०७ व्यवसाये निधौ धर्म-भोगयोः पोष्य-पोषणे। चतुरश्चतुरो भागानर्थस्यैवं नियोजयेत् ॥१०८ न लाल यति यो लक्ष्मी शास्त्रीयविधिनामुना । सर्वथैव स नि.शेषपुरुषार्थबहिःकृतः ॥१०९ पाच सञ्जायते लक्ष्मी रक्षण-व्यवसायतः । प्रावृषेण्यपयो वाहादिव काननकाम्यता ॥११० व्यवसायोऽप्यसो पुण्यनैपुण्यसचिवो भवेत् । सफलः सर्वदा पुंसां वारिसेकादिव वृमः ॥१११ शान्त करे, किन्तु तत्काल ही उसके कथनकी अवहेलना न करे । अन्यथा वह सेवक स्वयं उपेक्षित हो जायगा ।।९९।। यदि स्वामी योग्य भी कही गई बातकी अवमानना या उपेक्षा करे, तो सेवकको मौन धारण करना चाहिए। तथा स्वामीके आगे उनके वैरीका कभी गुणगान नहीं करना चाहिए ॥१०॥ स्वामीकी प्रसन्नता नहीं पानेपर भी सेवकको अपनी प्रकृति कुपित नहीं करनी चाहिए। स्वामीके द्वारा कार्यों में लगाये जानेपर और भी अधिक पुरुषार्थवाले कार्यकी याचना करनी चाहिए ॥१०१॥ क्रोध या प्रसादके चिह्नोंसे, वचनोंसे अथवा चेष्टासे स्वामीके मनको अपने विषयमें अनुरक्त या विरक्त जानना चाहिए ॥१०२॥ दिखाई देनेपर हर्ष प्रकट करे, समीप पहुँचनेपर धैर्य प्रदर्शित हो, खड़े होनेपर आसन देवे, स्नेहभरे वचन कहे और जो सेवक कहे उसे करे तो ये सब स्वामीके प्रसन्न होनेके लक्षण हैं ।।१०३।। आपत्तिसे युक्त होनेपर भी नहीं देखे, मानहानि करे, दर्शन न दे, दोषोंको कहे और आसन प्रदान न करे, तो ये सब स्वामीकी विरक्तताके लक्षण हैं ॥१०४॥ अनेक गुणोंसे युक्त सेवक किसी एक दोषके कारण स्वामीजनोंको नहीं छोड़ना चाहिए। धुंआके दोषके भयसे क्या अग्नि किसीके द्वारा त्यागी जाती है ? नहीं त्यागी जाती ॥ १०५ ॥ चंचलसे भी चंचल धन प्रशंसाके योग्य है । इसलिए पुरुषको धनका संग्रह करना चाहिए। व्यवसायी पुरुष असत् भी धनका उपार्जन करते हैं ॥१०६॥ अहो, अधिक कहनेसे क्या लाभ है, व्यवसाय करना लक्ष्मीका मुख है। अतएव दयाके कार्य करनेके लिए उस लक्ष्मीका उपार्जन करना ही चाहिए, जो कि दान और भोगोंको करनेवाली है ॥१०७॥ व्यापारमें उपार्जित धनके इस प्रकारसे चार भाग करना चाहिए-एक भाग भण्डारमें रखे, एक भाग धर्मकार्यमें लगावे, एक भाग अपने भोग-उपभोगमें खर्च करे और एक भाग अपने अधीन पोष्यवर्गके पोषणमें लगावे ॥१०८।। जो पुरुष इस शास्त्रीय विधिसे लक्ष्मीका लालन-पालन नहीं करता है, वह सर्वथा ही सम्पूर्ण पुरुषार्थोसे बहिष्कृत रहता है ॥१०९॥ वह लक्ष्मी संरक्षण और व्यवसायसे पैदा होती है। जैसे कि वर्षाके जल-प्रवाहसे वन-उद्यानके हरे-भरे रहनेकी कामना की जाती है ।।११०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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