SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह पुण्यमेव मुहुः केऽपि प्रमाणीकुर्वतेऽलसाः । निरीक्ष्य तद्वतां द्वारि ताम्यतो व्यवसायितः ॥११२ तवयुक्तं यतः पुण्यमपि निर्व्यवसायकम् । सर्वथा फलयन्नात्र कदाचिदवलोक्यते ॥११३ दो तथेतो ततो लक्ष्म्या हेतू न तु पृथक-पृथक । तेन कार्यो न गृहस्थेन व्यवसायोऽनुवासरे ॥११४ कालेन सूचितं वस्त्रममलं सदनं निजम् । अर्थोप्याधिकाश्चैतव्यवसायतरोः फलम् ॥११५ इत्थं किल द्वितीय-तृतीय-प्रहराधमखिलमपि । हट्टे कुर्वन्तः सन्तः कृत्यविधी नात्र मुह्यन्ति ॥११६ इति श्री कुन्दकुन्दस्वामिविरचिते श्रावकाचारे दिनचर्यायां द्वितीयोल्लासः । मनुष्योंका वह व्यवसाय भी पुण्यको निपुणताकी सहायतासे सफल होता है। जैसे कि जलके सिंचनसे वृक्ष फलीभूत होता है ॥१११॥ ___ पुण्यवालोंके द्वारपर व्यवसायी लोगोंको तमतमाते हुए खड़े देखकर कितने ही आलसी पुरुष बार-बार पुण्यको ही प्रमाण मानते हैं ॥११२|| किन्तु उनका यह मानना अयुक्त है, क्योंकि पुण्य भी व्यवसायके विना सर्व प्रकारसे फलता हुआ कभी भी यहां दिखाई नहीं देता है ॥११३।। इसलिए पुण्य और व्यवसाय ये दोनों ही लक्ष्मीकी प्राप्तिके कारण है। ये पृथक्-पृथक् लक्ष्मीकी प्राप्तिके कारण नहीं हैं। इसलिए गृहस्थको प्रतिदिन केवल व्यवसाय ही नहीं करना चाहिए। ( अपि तु पुण्यका भी उपार्जन करना चाहिए। ॥११४॥ समयके अनुसार निर्मल उत्तम उचित वस्तु मिलना, अपना सुन्दर भवन होना, धन और धन-प्राप्तिके उपायोंका संयोग होना, ये सब व्यवसायरूपी वृक्षके फल हैं ॥११५॥ इस प्रकार व्यवसायी पुरुष दूसरे और तीसरे पहरके अर्ध भागतक या तीसरे तक भी हाट-बाजारमें व्यवसाय करते हैं। क्योंकि सज्जन पुरुष इस लोकमें अपने कर्तव्यको करने में विमोहित नहीं होते हैं । किन्तु उल्लासपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करते हैं ।।११६।। इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दस्वामि-विरचित श्रावकाचारमें दिनचर्याके वर्णन करनेमें दूसरा उल्लास पूर्ण हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy