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श्रावकाचार-संग्रह
सेवकः स पुनो नम्रः स्थम्याकूते विशेत्सदा । स्वमार्गेणोचिते स्थाने गत्वा चासोत संवृतः ॥८८
आसीत स्वामिन: पावें तन्मुक्षी कृताञ्जलिः ।
स्वभावं चास्य विज्ञाय दक्षः कार्याणि साधयेत् ॥८९ नान्यासन्नो न दूरस्थो न समोच्चासनस्थितः । न पुरस्थो न पृष्ठस्थस्तिष्ठेत्सदसि तु प्रभोः ॥९० आसन्ने स्यात् प्रभोर्वाधा दूरस्थेऽप्यप्रगलताम् । पुरः स्थितेऽप्यन्यकोपस्तस्मिन् पश्चाददर्शनः ॥९१ प्रभु-प्रिये प्रियत्वं च प्रभुवैरिणि वैरिता । तस्यैवाव्यभिचारेण नित्यं वर्तेत सेवकः ॥९२ प्रसावात्स्वामिना दत्तं वस्त्रालङ्करणादिकम् । प्रोत्याधार्य स्वयं देयं न चान्यस्मै तदग्रतः ॥५३ स्वामिनो ह्यधिको वेषः समानो वा न युज्यते । श्रस्तं वस्त्रं क्षुतं ज़म्भा नेक्षेतास्य स्त्रियं तथा ॥९४ विक्षम्भणकृतोद्गारहास्यादीन् पिहिताननः । कुर्यात्सभासु नो नासाशोधनं हस्तमोटनम् ॥९५ कुर्यात्पर्यस्तिकां नैव नैव पादप्रसारिकाम् । न निद्रां विकयां नापि सभायां कुक्रियां न च ॥१६ श्रोतव्या सावधानेन स्वामिवागनुजीविना । भाषितः स्वामिना जल्पेन्न चैकवचनादिभिः ॥९७ आज्ञा-लाभादय: सर्वे यस्मिन् लोकोत्तरा गुणाः । स्वामिनं नावजानीयात्सेवकस्तं कदाचन ॥९८ एकान्ते मधुरैर्वाक्यैः शान्तयेन्नहि तत्प्रभुम् । वारयेदन्यथा हि स्यादेष स्वयमुपेक्षितः ।।२९ .
हो, प्रियवादी हो, पराक्रमी हो, पवित्र हो, लोभ-रहित हो, उद्यमशील हो और स्वामीका भक्त हो, ऐसा व्यक्ति ही सज्जनोंके द्वारा सेवक कहा गया है ।८७॥ वह सेवक नम्र हो, स्वामीके अभिप्रायमें सदा प्रवेश करनेवाला हो और अपने मार्गसे जाकर उचित स्थानमें शरीरका संवरण करके बैठे ।।८८|| स्वामीके समीप उनके मुखको देखता हुआ अंजली बाँधकर बैठे और स्वामोके स्वभाव (अभिप्राय) को जानकर वह दक्ष सेवक कार्योंको सिद्ध करे ॥८९।। सेवकको चाहिए कि वह सभा में स्वामीके न अतिसमीप बैठे, न अति दूर बैठे, न समान आसन पर बैठे, न बिलकुल सामने बैठे और न बिलकुल पीछे बैठे। (किन्तु यथोचित स्थान पर बांई ओर बैठे) ॥९०॥ स्वामी के अति समीप बैठनेपर स्वामीके कार्य में बाधा आती है, अति दूर बैठने पर मूर्खता प्रकट होती है, सामने बैठनेपर अन्य पुरुषका उसपर कोप होता है और पाछे बैठनेपर स्वामीको उसका दर्शन नहीं होता है ।।९१॥ स्वामीके प्रिय पुरुषपर प्रेमभाव रखे, और स्वामीके वैरीपर वैरभाव रखे । स्वामीकी इच्छाके अनुसार ही सेवकको नित्य कार्यमें प्रवर्तन करना चाहिए ।।१२।। स्वामीके द्वारा प्रसन्नतासे दिये गये वस्त्र और अलंकरण आदिको प्रीति-पूर्वक स्वयं धारण करना चाहिए। तथा स्वामोके आगे उन्हें अन्य पुरुषको नहीं देना चाहिए ।।१३।। स्वामीसे अधिक या समान वेषधारण करना सेवकको योग्य नहीं है। स्वामीके सामने ढीला वस्त्र पहिरना, छींकना और जंभाई लेना उचित नहीं है। तथा स्वामीकी स्त्रीको भी नहीं देखे ॥९४॥ उवासी, डकार, हँसी आदिको मख ढंककर करे। तथा सभामें नासा-मलका शोधना और हाथोंका मोड़ना भी उचित नहीं है ।।९५।। सभामें पालथो मार करके भी न बैठे, न पैरोंको पसारे, न निद्रा लेवे, न विकथा करे और न कोई खोटी क्रियाको ही करे ।।२६।। सेवकको सावधानीसे स्वामीके वचन सुनना चाहिए। स्वामीके द्वारा कोई कार्य करनेके लिए कहा जावे तो उसके उत्तरमें एक वचन आदि से न बोले । किन्तु आदर-सूचक बहुवचनका प्रयोग करे ॥९७।। जिसमें आज्ञा, लाभ आदि सभी लोकोत्तर गुण हैं, ऐसे स्वामीका सेवकको कभी अपमान या अवहेलना नहीं करनी चाहिए ॥९८॥ यदि कदाचित् स्वामी कोई अनुचित या रोषभरी बात कहे, तो एकान्तमें मधुर वाक्योंसे स्वामीको
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