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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार १५ 'वक्रनासातिदुःखाय ह्रस्वाङ्गा भयकारिणी। अनेत्रा नेत्रनाशाय स्वल्पा स्याद् भोगजिता ॥१४० जायते प्रतिमा होनकोटिराचार्यघातिनी। जवाहोना भवेद भ्रातृ-पुत्रपौत्र-विनाशिनी ॥१४१ पाणि-पादविहीना तु धनक्षयविधायिनी। चिरपर्युषिता सा तु नातव्या यतस्ततः ॥१४२ "यच्चाहत्प्रतिमोत्ताना चिन्ताहेतुरधोमुखी। आधिप्रदा तिरश्चीना नीचोच्चस्था विदेशदा ॥१४३ "अयायद्रव्य-निष्पन्ना पर-वास्तुदलोद्भवा । होनाधिकाङ्गी प्रतिमा स्व-परोन्नतिनाशिनी ॥१४४ प्रासादतुर्यभागेन समाना प्रतिमा मता। उत्तमायकृते सा तु कार्यकोनाधिकाङ्गला ॥१४५ अथवा स्वदशांशेन होनस्याप्यधिकस्य च । कार्या प्रासादपादस्य शिल्पिभिः प्रतिमा मता ॥१४६ सर्वेषामपि घातूनां रत्न-स्फटिकयोरपि । प्रबालस्य च बिम्बेषु चैत्यमानं यथेच्छया ॥१४७ द्रव्यका विनाश करती है, कृश उदरवाली प्रतिमा दुर्भिक्ष करती है, वक्र नासिकावाली प्रतिमा अतिदुःख देती है, ह्रस्व अंगवाली प्रतिमा क्षय-कारक है, नेत्र-रहित प्रतिमा नेत्रका विनाश करती है, उचित मुख-प्रमाणसे कम मुख-प्रमाणवाली प्रतिमा भोगोंका विनाश करती है, हीन कोटिकी प्रतिमा प्रतिष्ठाचार्यका विनाश करती है, जंघा-हीन प्रतिमा भाई, पुत्र और पौत्रका विनाश करती है, हाथ और पादसे हीन प्रतिमा धनका क्षय करती है। जो प्रतिमा चिरकाल तक अप्रतिष्ठित पड़ी रहे, उसका आदर नहीं करना चाहिए ॥१३९-१४२॥ जो अर्हत्प्रतिमा उत्तान होकर अधोमुखी हो, वह चिन्ताका कारण होती है। तिरछे मुखवाली प्रतिमा मानसिक चिन्ता पैदा करती है, अत्यन्त नीचे या ऊंचे स्थानपर स्थित प्रतिमा निर्माताको विदेश-प्रवास कराती है ॥१४३॥ जो प्रतिमा अन्यायके द्रव्यसे निर्माण कराई गई हो, दूसरेके वास्तुदल (क्षेत्र-भाग-) से उत्पन्न हुई हो, हीन या अधिक अंगवाली हो, वह अपनी एवं दूसरेकी उन्नतिका विनाश करती है॥१४४॥ मन्दिरके चतुर्थ भागके समान प्रमाणवाली प्रतिमा उत्तम लाभकारक होती है । वह प्रतिमा एक अंगुल हीन या अधिक कराना चाहिए ॥१४५।। अथवा मन्दिरके चतुर्थ भागके दशम अंशसे हीन प्रतिमा-निर्माण करावे । अर्थात् चतुर्थभागके दशभाग करना, उनमेंसे एकभाग चौथे भागमेसे कमकर या बढ़ाकरके तत्प्रमाणवाली प्रतिमा शिल्पियोंके द्वारा बनवानी चाहिए ॥१४६।। सभी धातुओंकी, रत्नोंकी और स्फटिक, तथा गाकी प्रतिमा अपनी इच्छानुसार प्रमाणवाली बनवानी चाहिए ॥१४॥ १. बहुदुक्ख वक्कनासा हस्संगा खयंकरी य नायव्वा । नयणनासा कुनयणा अप्पमुहा भोगहाणिकरा ॥४६॥ २. उड्ढमुही धणणासा अप्पूया तिरियदिट्ठि विन्नेया। बइघट्टदिट्ठि असुहा हवइ अहोदिट्ठि विग्धकरा ॥५१॥ ३. कडिहीणायरियहया सुयबंधवं हमइ हीणजंघा य । हीणासण रिदिहया घणक्खया होणकर-चरणा ॥४॥ ४. उत्ताणा अत्वहरा वंकग्गीवा सदेस भंगकरा । अहोमुहा य सचिंता विदेसमा हवइ नीचुच्चा ॥४८॥ ५. विषमासण बाहिकरा रोरकरण्णायदव्वणिप्पण्णा । हीणाहियंगपडिमा सपक्ख परपक्खकट्ठकरा ॥४९॥ (वास्तुसार दि० प्रकरण) * वस्तुतः उक्त हीनादि आकारवाली प्रतिमाएं किसीका कुछ भी बुरा नहीं करती है, किन्तु उनके निर्माण कराने वालेके अशुभ भविष्य की सूचक होती हैं, यह भाव लेना चाहिए। सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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