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________________ १६ श्रावकाचार-संग्रह 'प्रासादे गर्भ-गेहा मित्तितः पञ्चधाकृते । यक्षाद्याः प्रथमे भागे देव्यः सर्वा द्वितीयके ॥ १४८ जिनाकं स्कन्दकृष्णानां प्रतिमाः स्युस्तृतीयके । ब्रह्मा भागे स्याल्लिङ्गमीशस्य पञ्चमे ॥ १४९ ऊर्ध्वदृग् द्रव्यनाशाय तिर्यग्दृक् भोगहानये । दुःखदा स्तब्धदृष्टिश्चाधोमुखी कुलनाशिनी ॥१५० द्वारशाखाष्टभिर्भागैरधः पक्षा द्वितीयके । मुक्त्वाऽष्टमं विभागं तु यो भागः सप्तमः पुनः ॥ १५१ तस्यापि सप्तमे भागे गजाशा यत्र संभवेत् । प्रासाद-प्रतिमा दृष्टिनियोज्या तत्र शिल्पिभिः ॥ १५२ अथ भूमिपरीक्षार्थं किञ्चित्प्रासादस्वरूपम् - अवृत्ता भूरदिग्मूढा चतुरस्रा शुभाकृतिः । अहं बीजोद्गमा धन्या पूर्वेशानोत्तरास्तु वा ॥ १५३ व्याधि वल्मीकिनी वैश्यं मुखरा स्फुटिता मृतिम् । दत्ते भूशल्ययुक् दुःखं शल्यज्ञानमथोच्यते ॥ १५४ जिन मन्दिरके गर्भालय के अर्धभाग में भित्तीसे पाँच विभाग करके यक्ष आदि देवताओंको प्रथम भाग में, सभी देवियोंको दूसरे भाग में, जिन सूर्य, स्कन्द और कृष्ण (विष्णु) की प्रतिमाको तीसरे भाग में, ब्रह्माको चौथे भागमें और महादेवके लिंगको पाँचवें भागमें स्थापित करे। ये सभी मूर्तियाँ यदि ऊर्ध्व दृष्टिवाली हों तो द्रव्यके विनाशके लिए और तिर्यग्-दृष्टिवाली हों तो भोगोंकी हानि के लिए होती हैं । स्तब्ध दृष्टिवाली दुःखोंको देती है और अधोमुखवाली कुलका नाश करती है । १४८-१५०॥ अब भूमिकी परीक्षाके लिए प्रासाद ( मन्दिर ) का कुछ स्वरूप करते हैं-मन्दिरकी भूमि वृत्त (गोल) आकारवाली न हो, दिग्मूढ न हो, अर्थात् जहाँ खड़े होनेपर सभी दिशाओंका बोध सम्यक् प्रकारसे होता हो, चौकोर हो, शुभ आकारवाली हो, 'अहं' बीजकी उद्गमवाली हो, भाग्यशाली हो, पूर्व, ईशान या उत्तर दिशामें स्थित में हो || १५३|| सांपोंकी वल्मीकवाली भूमि मन्दिर बनानेवालेको व्याधि करती है, मुखर ( अनेक छिद्रवाली ) भूभी ऐश्वर्य - विनाशकारक होती है, स्फुटित ( दरारवाली ) भूमि मरणको करती है और शल्य - ( अस्थि, लोह आदि ) युक्त भूमि दुःखको देती है । इसलिए भूमिके शल्य - जाननेका उपाय कहते हैं || १५४ ॥ Jain Education International १. गब्भगिहड्ढ -पणंसा जक्खा पढमंसि देवया बीए । जिण किण्ह रवी तइए बंभु चउत्थे सिवं पणगे ||४५ || नहु गब्भे ठाविज्जइ लिगं गब्भे चइज्ज तो कहषि । तिलभद्धं तिलमित्तं ईसाणे किं पि आसरिओ ||४६ ॥ २. दिणतिग बीयप्पसवा चउरंसाऽवम्मिणीं अफुट्टाय । अङ्कल्लर भू सुहया पुबेसाणुत्तरंबुवहा ||९|| ३. वम्मइणी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ रोरकरी ! अइफुट्टा मिम्बुकरीं दुक्म्वकरी तह य ससल्ला ||१०|| (वास्तुसार द्वि० प्रकरण ) * ऐसा कथन अन्यत्र जैन प्रतिष्ठापाठ आदिमें दृष्टिगोचर नहीं हुआ है । सम्पादक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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