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________________ धावकाचार-संग्रह 'भालं नासा हनुग्रीवाहृन्नाभि-गुह्य-जानु च।। अष्टौ वासीनबिम्बस्याङ्कानां स्थानानि पूर्ववत् ॥१३२ अतीताब्दशतं यत्स्याद्यच्च स्थापितमुत्तमैः । व्यङ्गमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं न यत् ॥१३३ JETE प्यादि बिम्बं व्यङ्गं संस्कारमहति । काष्ठ-पाषाणनिष्पन्नं संस्कारार्ह पुनर्नहि ॥१३४ 'नखाङ्गलि-बाहुनासाङ्क्रीणां भङ्गष्वनुक्रमात् । शत्रुभिर्देशभङ्गश्च बन्धुकुलधनक्षयः ॥१३५ "पोठयानपरीवारध्वंसे सति यथाक्रमम् । जन-वाहन-भृत्यानां नाशो भवति निश्चितम् ॥१३६ आरभ्यैकाङ्गलाद्विम्बाद्यावदेकादशाङ्गलम् । गृहेषु पूजयेद बिम्बमूवं प्रासादगं पुनः ॥१३७ प्रतिमा काष्ठलेपाश्मभित्तिचित्रायसी गृहे। मानाधिकपरोवाररहिता नैव पूज्यते ॥१३८ "रौद्री निहन्ति कर्तारमधिकाङ्गा तु शिल्पिनाम् । कृशा द्रव्यविनाशाय दुभिक्षाय कृशोदरी ॥१३९ जो प्रतिमा विगत सौ वर्षसे पूजित चली आ रही हो और जिसे उत्तम पुरुषोंने स्थापित किया हो, तो वह व्यंगित ( अंग-भंग ) होनेपर भी पूज्य है। वह मूत्ति निष्फल नहीं है ॥१३३॥ धातु, लेप आदिसे बनाई गई मूर्ति यदि अंगहीन हो जावे तो वह संस्कार करनेके योग्य है । किन्तु काष्ठ या पाषाणसे निर्मित मूत्ति अंग-भंग होनेपर संस्कारके योग्य नहीं है ॥१३४॥ नखाङ्गुली, बाहु, नासिका और चरण इनके भंग होनेपर अनुक्रमसे शत्रुओंके द्वारा देशभंग, बन्धुजनोंका क्षय, कुलका क्षय और धनका विनाश होता है ।।१३५॥ मूत्तिके बैठनेका पीठयान और यक्षादि परिवारके विध्वंस होनेपर यथाक्रमसे न-वाहनों और भृत्यजनोंका विनाश निश्चित है ॥१३६|| एक अंगुलसे लेकर ग्यारह अंगुल तः क प्रमाणवाली मूर्तिको अपने घरोंमें स्थापित करके पूजे । इससे अधिक प्रमाणवालो मूर्तिको मन्दिरमें विराजमान करके पूजना चाहिए ॥१३७॥ घरमें काष्ठ, लेप, पाषाणकी भित्तिपर चित्रित प्रतिमा पूजनीय है। किन्तु प्रमाण से अधिक और परिवारसे रहित प्रतिमा पूजनीय नहीं है ।। १३८।। रौद्र आकारवाली प्रतिमा निर्माण-कर्ताका विनाश करती है, अधिक अंगवाली प्रतिमा मूत्ति बनानेवाले शिल्पीका विनाश करती है, कृश ( क्षीण ) शरीरवाली प्रतिमा प्रतिष्ठाकारकके १. भालं नासा वयणं गीव हियय गोव नाहिं गुज्झ जण्णू या । आसीण बिबमानं पुत्वविही अंक संखाई ॥८॥ वरिससयाओ उडढं जं बिबं जंगमेहिं संठविवं । विअलंग वि पूइज्जइ तं बिंब निष्फलं न जओ ॥३९॥ मुह-नक्क-नयण-नाही-कडिभंगे मूलनायगं चयह । आहरण-वत्थ-परिगर-चिण्हायुहभंगि पूइज्जा ॥४०॥ ३. धाउलेवाइबिम्बं विअलंगं पुणवि कीरए सज्जं । कट्ठ-रयण-सेलमयं न पुणो सज्जं च कइयापि ॥४१॥ ४. नह-अंगुली अ बाहा-नासा-पय-भंगिणुक्कमेण फलं । सत्तुभयं देसभंगं बंधण-कुलनास-दव्वक्खयं ॥४४॥ ५. पयपीढचिण्हपरिगर-भंगे जनजाणमिच्चहाणिकमे । छत्त-सिखिच्छ-सवणे लच्छो-सुह-बंधवाण खयं ।।४५।। ६. इक्कंकुलाइ पडिया इक्कारस जाव गेहि पूइज्जा । उड्ढं पासाइ पुणो इय भणियं पुव्वसूरीहिं ॥४३॥ ७. पडिमा र उह जा सा करावयं हंति सिप्पि अहियंगा। दुम्बल दवविणासा किसोरा कुणइ दुन्भिक्खं ॥५०॥ (वास्तुसार, द्वि० प्रकरण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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