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________________ कुन्दकुन्द श्रावकाचार 'अन्योन्य जानुस्कन्धान्तस्तिर्यकसूत्रनिपातनात् । केशान्ताञ्चलान्ताच्च सूत्रक्याच्चतुरस्रता ॥१२६ सूत्रे जानुद्वये (?) तिर्यग्दज्ञान्नाभौ च कण्ठिकाम् । प्रतिमायाः प्रतिसरो भवेदष्टादशाङ्गलः ॥१२७ नवतालं भवेद् रूपं तालश्च द्वावशाङ्गलः । अगला नान्यचर्चायाः किन्तु रूपस्य तस्य हि ॥१२८ अध्वं तु प्रतिमामानमष्टोत्तरशतांशतः। आसीनप्रतिमामानं षटपञ्चाशद्विभागतः ॥१२९ भालनासाहनुग्रीवहन्नाभिगुह्यमूरुके । जानुजङ्घाङ्घ्रिचत्यैकादशाङ्कस्थानकानि तु ॥१३० *चतुःपञ्चचतुर्वह्निसूर्याककिजिनाब्धयः । जिनान्धयश्च मानाङ्क ऊर्ध्वाद्ध्वंस्थरूपकः ॥१३१ अर्थात् मूर्ति बनानेके लिए जो पाषाण लिया जावे वह विषम अंगुलि-संख्यावाला होना चाहिए ॥१२५।। प्रतिमा समचतुरस्र संस्थानवाली होनी चाहिए। वह समचतुरस्रता इस प्रकार जानेपद्मासनसे बैठी प्रतिमामें परस्पर जानुके सिरेसे स्कन्ध-पर्यन्त तिरछा सूत्र डालकर नापे, अर्थात् वाम जानुसे दाहिने कंधेतक सूत्रसे नापे, जो नाप हो, वही नाप दक्षिण जानुसे वाम कंधे तक होना चाहिए। पादपीठसे केशोंके अन्ततक तथा दोनों जानुओं के मध्यभागवर्ती अन्तरालका एकसूत्र इस प्रकार चारों सूत्रोंका एकमाप हो, इसे ही समचतुरस्रता कहते हैं ॥१२६।। दोनों जानुओंका तिरछा अन्तर छत्तीस अंगुल हो, तथा नाभिसे लगाकर कण्ठ-पर्यन्त प्रतिमाका प्रतिसर (ऊंचाई) अठारह अंगुल होना चाहिए ॥१२७।। मूत्तिका रूप नौ ताल होना चाहिए। ताल बारह अंगुलप्रमाण होता है। अंगुल अन्य प्रतिमाके शरीरके नहीं, किन्तु उसी प्रतिमारूपके अंगुल लेना चाहिए ॥१२८।। खङ्गासन प्रतिमाका प्रमाण एक सौ आठ (१०८) अंगुल और पद्मासनसे बैठी प्रतिमाका प्रमाण शरीरके विभागसे छप्पन ( ५६ ) अंगुल कहा गया है ।।१२९।। भाल ( मस्तक ) नासिका, हनु ( ठोड़ी-दाढ़ी ) ग्रीवा, हृदय, नाभि, गुह्यभाग, उरु, जानु, जंधा, और चरण ये एकादश स्थान खङ्गासन प्रतिमामें होते हैं। इनका प्रमाण क्रमसे चार, पांच, चार, तीन, बारह, बारह, बारह, चौबीस, चार, चौबीस और चार अंगुल प्रमाण होता है। इस प्रकार ऊर्ध्वस्थ ( खङ्गासनसे खड़ी ) मूर्तिका प्रमाण एक सौ आठ अंगुल होता है ।।१३०-१३१।। पद्मासनसे बैठी प्रतिमाके भाल, नासिका, हनु, ग्रीवा, हृदय, नाभि, गुह्यभाग और जानु ये आठ अंक स्थान होते हैं और इनका प्रमाण खङ्गासनके समान हो जानना चाहिए ॥१३२।। समचतुरस्र का स्वरूप पद्मासन मृत्ति में१. अन्नुन्न जाणु कंधे तिरिए केसंत-अंचलते यं । सुत्तेगं चउरंसं पज्जंकासणसुहं बिंबं ॥४॥ प्रतिमा की ऊँचाईका प्रमाण२. नवताल हवइ रुवं स्वस्स य वारसंगुलो तालो । अंगुल अट्ठहियसयं उड्ढं वासीण छप्पन्नं ॥५॥ खड़ी प्रतिमा के अंग विभाग३. भालं नासा वयणं गीव हियय नाहि गुज्झ जंघाई । जाणु य पिडि य चरणा इक्कारस ठाण णायव्वा ॥६॥ पाठान्तर भालं नासा वयणं थणसुत्तं नाहि गुज्झ ऊरू य । जाणु य जंघा चरणा इय दह ठाणाणि जाणिज्जा ॥ ४. चउ पंच वेय रामा रवि दिणयर सूर तह य जिण वेया । जिण वेय भायसंखा कमेण इम उड्ढस्वेणं ॥७॥ पाठान्तरचउ पंच वेय तेरस परदस दिणणाहं वह य जिण बेया । जिन बेय भायसंस्था कमेण इब उड्डरवेणं ॥ (वास्तुसार, दि० प्रक.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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