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________________ श्रावकाचार-संग्रह नित्यं देवगुरुस्थाने गन्तव्यं पूर्णपाणिभिः । विधेयस्तत्र चापूर्वज्ञानाभ्यासो विवेकिभिः ॥११७ आजन्म गुरुदेवानामर्चने पूज्यतां सताम् । रोगादिभिः पुननं स्याद्यवि तन्नैव दोषकृत् ॥११८ कुप्रवृत्ति त्रिधा त्यक्त्वा दत्वा तिस्रः प्रदक्षिणाः । देवस्यार्चा त्रिघा कृत्वा तं ध्यायेसिद्धिदं सुधीः॥११९ अग्दृिष्टिभिरग्राह्यो विश्वातिशयभासुरः । निःसंसारविकारश्च यो देवः सततं मतः ॥१२० उपविष्टस्य देवस्योर्ध्वस्य वा प्रतिमा भवेत् । द्विधा अपि युवावस्था पर्यङ्कासनमादिमा ॥१२१ वामो दक्षिणजबोर्वोरुपर्यध्रि करोऽपि च । दक्षिणो वामजङ्घोोस्तत्पर्यङ्कासनं मतम् ॥१२२ देवस्योर्ध्वस्य चर्चा स्याज्जानुलम्बि भुजद्वयम् । श्रीवत्सोष्णीषसंयुक्ते द्वे छत्रपरिवारिते ॥१२३ 'छत्रत्रयं च नासोत्तारि सर्वोत्तमं भवेत् । नासा भालं तयोर्मध्यं कपोले वेधकृत् भवेत् ॥१२४ रक्षितव्यः परीवारे दृषदा वर्णसङ्करे । 'न समागुलिसंख्येष्टा प्रतिमामानकर्मणि ॥१२५ देवार्चन करके श्रीमान् पुरुषोंको आभरणादिसे भूषित होकर तदनन्तर धर्म-स्थानमें जाकर अन्य जनोंके पूर्व पुण्यका जैसा अवलोकन हो, वैसा ही दिनमें स्वयं भी नवीन पुण्यका उपार्जन करना चाहिए ॥११६।। देव-स्थानमें और गुरुके स्थानमें नित्य ही फलादिसे परिपूर्ण हाथोंके साथ विवेकी जनोंको जाना चाहिए, और वहाँ पर नवीन ज्ञानका अभ्यास करना चाहिए ॥११७।। जन्म-पर्यन्त गुरुजनोंकी और इष्ट देवोंकी पूजन करनेपर सज्जनोंको पूज्यता प्राप्त होती है। यदि कदाचित् रोगादिके कारण देव या गुरुकी सेवा न की जा सके तो कोई दोष-कारक बात नहीं है । (किन्तु मनमें भावना तो सदा ही उनके उपासनाकी रखनी चाहिए। ) ॥११८॥ खोटी प्रवत्तिको मन वचन कायसे त्याग करके. तीन प्रदक्षिणा देकरके. और देव को त्रियोगसे पूजा करके बुद्धिमान् पुरुषको सिद्धि देने वाले उनका ध्यान करना चाहिए ॥११९।। जो विश्वको चमत्कृत करने वाला है, अतिशयोंसे भासुरायमान और अल्पज्ञ दृष्टि वाले जनोके द्वारा जानने में नहीं आने वाला, तथा जो संसारके समस्त विकारोंसे रहित है, वही सच्चादेव माना गया है ॥१२०॥ पद्मासनसे बैठे हुए और खङ्गासनसे खड़े हुये देवकी प्रतिमा होती है। दोनों ही प्रकारको प्रतिमा युवावस्थावाली होती है। इनमेंसे बैठी हुई पहली प्रतिमा पर्यङ्कासन होती है ।।१२१।। वाम पादको दक्षिण जांघपर रखकर पुनः दक्षिण पादको वाम जांघपर रखकर उन दोनोंके मध्यमें वाम हस्तके ऊपर दक्षिण हस्तको रखकर बैठनेको पर्यङ्कासन माना गया है ॥१२२।। खङ्गासनसे खड़े हुए देवकी प्रतिमा जानु-पर्यन्त लम्बित दोनों भुजावाली होती है। दोनों ही प्रकारको प्रतिमाएँ वक्षःस्थल में श्रीवत्ससे मस्तकपर उष्णीषसे और शिरपर छत्रसे संयुक्त होती हैं ॥१२३।। शिर पर सर्वोत्तम तीन छत्र हों, जो नासाके अग्रभागमें उतारवाले न हों, अर्थात् नासिकाके समान परसे नीचेकी ओर वृद्धिगत हों, उनका विस्तार नासिका, ललाट, उनका मध्य भाग, और दोनों कपोलके विस्तारके अनुरूप होना चाहिए ॥१२४॥ भावार्थ-जिनमूत्तिके मस्तक, कपाल, कान और नाकके ऊपर बाहिर की ओर निकले हुए तीन छत्र होना चाहिए। मूत्तिका जो यक्ष-यक्षिणीका परिवार है उसके निर्माणमें वर्णसंकर अर्थात् भिन्न वर्णवाला पाषाण रखना चाहिए। प्रतिमाके निर्माण कार्यमें पाषाणकी सम अंगुलि-संख्या इष्ट नहीं है, १. छत्तत्तय उत्तारं भालकपोलामो सवणनासायो । सुहयं जिणचरणग्गे नवम्गहा अक्ख-जक्खिणिया ।। (वास्तुसार प्रकरण २ गाथा २) २. सम-बंगुलप्पमाणं न सुंदरं हबह कइयादि । (वास्तु०प्र० २, मा० ३ उत्तराध) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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