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कुन्दकुन्द श्रावकाचार धर्मशोकभयाहार-निद्राकामकलिधः । यावन्मात्रा विधीयन्ते तावन्मात्रा भवन्त्यमी ॥१०६ आपयापादने स्वामिसेवायां पोष्यपोषणे । धर्मकृत्ये च नो कर्तुं बुध्यन्ते प्रतिहस्तकाः ॥१०७ संवृत्ताङ्गः समज्यायां प्रायः पूर्वोत्तराननः । स्थिरासनसमासीनः संवृत्य चतुरो बलात् ॥१०८ अधमर्णाचिरारात्यविग्रहोत्पादवेऽपि च । शन्यागस्यपि कर्तव्या सुखलाभजयाथिभिः ॥१०९ स्वजनस्वामिगुर्वाद्या ये चान्ये हितचिन्तकाः । जीवाङ्गे ते ध्रुवं कार्यो वाञ्छितार्थविधिः शुभः॥११० आचार्याणां कवीनां च पण्डितानां कलाभृताम् । समुत्पाद्यः सदानन्दः कुलोनेन कुलं यथा ॥१११ विशेषज्ञानविधिना कलिकालवशाद् गतम् । नित्यमेव ततश्चिन्त्यं बुधैश्चन्द्रबलादिकम् ॥११२ न निमित्तद्विषां क्षेमो नायुर्वेद द्विषामपि । न श्री तिद्विषामेकमपि धर्मद्विषां न तु ॥११३ निरन्तमैथुनं निद्रावारिणामसेवनम् । एतानि विषतुल्यानि वर्जनीयानि यत्नतः ॥११४ सुकृताय न तृप्यन्ति सन्तः सन्ततमप्यहो । विस्मर्तव्यो न धर्मेऽपि समुपास्तिस्ततः क्वचित् ॥११५ धर्मस्थाने ततो गत्वा श्रीमद्भिः कृतभूषणैः । प्राग्पुण्यं दृश्यतेऽन्येषां स्वयमप्यतयुपाय॑ते ॥११६ की विभूतियाँ प्राप्त होता है, उस परमात्माके आगे इन दोनों स्वरोंका यथाशक्ति नित्य ही विचार करना चाहिए ॥१०५।।
धर्म, शोक, भय, आहार, निद्रा, काम, कलह और क्रोध, ये कार्य जितनी मात्रामें किये जाते हैं, उतनी ही मात्रामें ये पुनः उत्पन्न होते हैं। ( इसलिए शोक आदि पाप कार्योंको कमसे कम और धार्मिक कार्योंको अधिकसे अधिक करना चाहिए ) ॥१०६।। आपत्तिके दूर करनेमें, स्वामो की सेवामें, पोष्य वर्गके पोषण करने में और धर्म-कार्य में दूसरेके द्वारा हस्तक्षेपका विचार नहीं किया जाता है ।।१०७॥ वस्त्र आदिसे जिसने अपने शरीरको भले प्रकारसे आवृत किया है, ऐसा चतुर पुरुप अपने शरीरके अंगोंका संवरण करके प्रायः पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके स्थिर आसनसे सावधान होकर सभामें बैठे ॥१०८।। अधमर्ण (कर्जदार) के साथ, नवीन शत्रुके साथ अविग्रह (सन्धि) करने में, निरपराध पुरुष पर, सुख-शान्ति, अर्थलाभ और अपनी जीतिके इच्छुक पुरुषोंको अच्छा व्यवहार करना चाहिए ॥१०९।। जो स्वजन है, अपना स्वामी है और जो गुरुजन आदि है, एवं अन्य जो अपने शरीर और आत्माके हित-चिन्तक व्यक्ति है, उनके साथ सद्व्यवहार करना चाहिए ॥११०॥
जैसे कुलीन पुरुष अपने कुलके पुरुषोंको सदा आनन्दित रखता है, उसी प्रकार उसे आचार्यों को, कवियोंको, पंडितोंको और कलाकारोंको सदा आनन्दित करते रहना चाहिए ॥१११॥ कलिकालके वशसे विनष्ट हुए चन्द्र-बलादिके परिज्ञानको विशेष ज्ञानोपार्जन की विधिसे नित्य ही विद्वानोंके साथ चिन्तन करना चाहिए ॥११२|| निमित्त शास्त्रसे द्वेष करने वालोंका कल्याण नहीं, आयुर्वेदसे द्वेष करने वालोंका भी कल्याण नहीं, हर किसीसे द्वेष करने वालोंका कल्याण नहीं, और धर्मसे द्वेष करने वालोंका कल्याण नहीं होता है। इन द्वष करने वालोंमेंसे किसीको भी लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती है ॥११३।। भूखे पुरुषोंको मैथुन सेवन करना, निद्रा लेना,
और निद्रा नहीं लेने वालोंको सूर्यकी धूपका सेवन करना, ये कार्य विष-तुल्य है, इनका प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना चाहिए ॥११४॥
अहो सन्तजन सुकृत कार्य करते हुए कभी तृप्त नहीं होते हैं। इसलिए धर्ममें भी उसकी उपासना करना कभी कहीं पर भी विस्मरण नहीं करना चाहिए ॥११५।। इस प्रकार घरमें
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