SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AM कुन्दकुन्द श्रावकाचार अम्भोभूतत्त्वयोनिद्राविच्छेदः शुभहेतवे । व्योमवाय्वग्नितत्त्वेषु स पुनदुःखदायकः ॥२४ शुक्लप्रतिपदो वायुश्चन्द्रेऽथा व्यहं व्यहम् । वहन शस्तोऽनया रीत्या विपर्यासे तु दुःखदः ॥२५ सार्धघटिद्वयं नाडीरेकैकार्योदयाद्वहेत् । अरहघटी-भ्रान्तिर्वायोडियाः पुनः पुनः ।।२६ शतानि तत्र जायन्ते निश्वासोच्छवासयोनव। ख-ख-षडेक कर (२१६००) संख्याहोरात्रे सकले पुनः ॥१७ । षत्रिंशदगुरुवर्णानां या वेला भरणे भवेत् । सा वेला परतो नाडयां-नाडयां सञ्चरतो लगत् ॥२८ प्रत्येकं पञ्च तत्वानि नाडचाच वहमानयोः । वहन्त्यहनिशं तानि ज्ञात यानि पलात्मकम ॥२९ ऊध्वं वह्निरधस्तोयं तिरश्चीनं समीरणः । भूमिमध्यपुटे व्योम सर्वगं वहते पुनः ॥३० वायोर्वहरपा पृथ्व्या व्योम्नस्तत्त्वं बहेत् क्रमात् ।। वहन्त्योरुभयोर्नाडयो ज्ञातव्योऽयं क्रमः सदा ॥३२ पव्याः पलानि पञ्चाशच्चत्वारिंशत्तथाम्भसः । अग्नेस्त्रिंशत्पुनर्बायोविशतिर्नभसो दश ॥३२ प्रवाहकाले संख्येयं हेतुर्बह्वल्पयोरथ । पृथ्वी पञ्चगुणा तोयं चतुगुणमथानलः ॥३३ पक्षका आश्रय ले, अर्थात् नाकके चलनेवाले स्वरका विचार कर तदनुसार शय्यासे उठते हुए पहले पृथ्वी तलपर उसी पैरको रखे ।।२३।। भावार्थ-यदि दाहिना स्वर चलता हो तो भूमिपर पहिले दाहिने पैरको रखे और यदि वाम स्वर चल रहा हो तो पहिले वायां पैर भूमिपर रखे। जलतत्त्व और भूमित्त्वमें निद्राका विच्छेद हो, तो वह शुभ होता है। किन्तु आकाशतत्त्व, वायुतत्त्व और अग्नितत्त्वमें निद्राका विच्छेद दुःख-दायक होता है ॥२४॥ प्रत्येक मास की शुक्ला प्रतिपदासे चन्द्रस्वरमें तीन दिन तक वायु वहे, पुनः तीन दिन तक सूर्यस्वरमें वहे, इस क्रमसे मासके अन्त-पर्यन्त वहनेवाली वायु प्रशस्त मानी गई है । इससे विपरीत क्रममें अर्थात् सूर्यस्वरमें तीन-तीन दिन तक, पुनः चन्द्रस्वरमें वहनेवाली वायु दुःग्वदायक कही गयी है ।।२५।। सूर्योदयसे एक-एक नाड़ी अढ़ाई-अढ़ाई घड़ी तक बहती है। इस प्रकार अरहटकी घड़ीके समान वायुकी नाड़ीका पुनः पुन: परिभ्रमण होता रहता है ॥२६॥ __एक नाड़ीके कालमें नव सौ (९००) श्वासोच्छवास होते हैं और सम्पूर्ण दिन-रातमें श्वासोच्छ्वासोंकी संख्या शून्य-शून्य, छह, एक और कर अर्थात् दो, इस प्रकार ( २१६०० ) इक्कीस हजार छह सौ होती है ॥२७।। छत्तीस गुरु वर्गों के उच्चारणमें जितना समय लगता है, उतना एक नाडोका समय होता है। अतः परवर्ती ( आगे बहनेवाली ) प्रत्येक नाड़ीके संचारमें उतना-उतना समय लगता है ॥२८|| भावार्थ-नाड़ीरूप बहनेवाले पाँचों तत्त्वोंमेंसे प्रत्येक तत्त्वका समय पलात्मक होकर दिन-रात चलता है। प्रत्येक नाड़ीके प्रवहमान श्वासोच्छवासोंमें पाँचों तत्त्व दिन-रात बहते रहते हैं। उन तत्त्वोंको पलात्मक अर्थात् पलके कालप्रमाणसे जानना चाहिए ।।२९।। इन पाँचों तत्त्वोंके जाननेका क्रम इस प्रकार है-अग्नितत्त्व ऊपर की ओर बहता है. जलतत्त्व नीचेकी ओर बहता है, वायुतत्त्व तिरछा बहता है, भूमितत्त्व मध्य पुटमें बहता है और आकाशतत्त्व सर्व ओर बहता है ॥३०॥ इस प्रकार ये पाँचों तत्त्व क्रमसे बहते हैं- वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश सूर्य और चन्द्र इन दोनों ही नाड़ियोंके बहने में सदा यह क्रम जानना चाहिए ॥३१॥ पृथ्वीतत्त्वका काल पचास पल है, जलतत्त्वका काल चालीस पल है, अग्नितत्त्वका काल तीस पल है. वायुतत्त्वका काल बीस पल है और आकाशतत्त्वका काल दश पल है ॥३२॥ तत्त्वोंके सामान्य रूपसे प्रवाह-कालमें पलोंकी उक्त संख्या कही गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy