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________________ श्रावकाचार-संग्रह त्रिगुणो विगुणो वायुवियदेकगुणं भवेत् । गुणं प्रति दश पलान्युयाः पञ्चाशदित्यपि ॥३४ एकैकहानिस्तोयादेस्तेऽय पञ्चगुणा मितेः । गन्धो रसश्च रूपं च स्पर्शः शब्दः क्रमादमी ॥३५ तत्राभ्यां भूजलाम्यां स्यात् शान्तेः कार्ये फलोन्नतिः । दीप्ताच्छिराविके कृत्ये तेजो वाय्वम्बरैः शुभम् ॥३६ । पव्यतेजोमरुद्वयोमतत्त्वानां चिह्नमुच्यते । आय: स्येयं स्वचित्तस्य शैत्यकामोद्भवा परे ।।३७ तृतीये कोपसनापौ तुर्ये च चलितात्मनः । पञ्चमे शन्यतैव स्यादथवा धर्मवासना ॥३८ नृत्योरङ्गष्ठको मध्यागुल्यो नासापुटद्वये । सृक्विण्योः प्रान्तकोपान्त्याङ्गुलीशाखे दृगन्तयोः ॥३९ न्यस्यान्तन्तभ्रुपृथिव्यादितत्त्वज्ञानं भवेत् क्रमात् । पोतश्वेतारुणः क्याौबन्दुभिनिरुपाधिखम् ॥४० पोतः कार्यस्य ससिद्धिः बिन्दुः श्वेतः सुखं पुनः । भयं सन्ध्यारुणोद्भूतो हानि ङ्गसमद्युतिः ॥४१ जीवितव्ये जये लाभे शस्योत्पत्तौ च वर्षणे । पुत्रार्थे युद्धप्रश्ने च गमनागमन तथा ॥४० किन्तु किसी हेतुसे इनके पलोंकी संख्या अधिक या अल्प भी हो सकती है। पृथ्वीतत्त्वके पलोंकी संख्या पंचगुणी है, जलतत्त्वके पलोंकी संख्या चतुर्गुणी है, अग्नितत्त्वके पलोंकी संख्या तिगुनी है, वायुतत्त्वके पलोंकी संख्या दुगुनी है और आकाशतत्त्वके पलोंको संख्या एक गुणी होती है। इस प्रकार गुणनके प्रति दश पलोंको जानना चाहिये। तदनुसार पृथ्वीतत्त्वके पल पचास होते हैं ॥३३-३४॥ इन जलादि तत्त्वोंमें एक-एककी हानि होती है । पृथ्वी तत्त्वको पलसंख्या पचगुणी है । पृथ्वीका लक्षण गन्ध है, जलका लक्षण रस है, अग्निका लक्षण उसका भासुरायमान स्वरूप है, वायुका लक्षण स्पर्श है और आकाशका लक्षण शब्द है। इस क्रमसे तत्त्वोंके ये गुण कहे गये हैं ॥३५।। इन उक्त तत्वोंमस पृथ्या और जल तत्त्वके द्वारा शान्तिक-पौष्टिक कर्मोम फलको उन्नति होती है। तेज तत्वमें उग्र और तीक्ष्ण कार्य सम्पन्न होत है, अर्थात् आभचार, घात, परस्पर भेदोत्पादन और पशुओंके दमन आदि कार्य होते हैं। वायु और आकाश तत्त्वक द्वारा शुभ कार्योंकी प्रेरणा और पूर्ति होती है ॥३६॥ अब पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन तत्त्वोंके चिह्न बतलात है-आद्य पृथ्वी तत्त्वका चिह्न अपने चित्तकी स्थिरता है, जलतत्त्वका चिह्न शंत्य और काम-जनित अन्य भाव है, अग्नितत्त्वका चिह्न काप और सन्ताप है, चौथे वायुतत्त्वका चिह्न आत्माको चंचलता है, पांचवें आकाश तत्त्वका चिह्न शून्यता अथवा धर्म-चिन्तनरूप वासना है ॥३७-३८॥ दोनों हाथोंके अंगठोंको दोनों कानोंम, दोनों तर्जनियोंको दोनों नेत्रोंक कोनोंमें, दोनों मध्यमा अंगुलियोंको नाकके दोनों छिद्रोंमें, दोनों अनामिकाआको मुखके दोनों किनारोंपर रखकर स्वम्-साधन करे ॥१९॥ उक्त प्रकारसे वायुका दानों भृकुटियांके मध्यमें विन्यास करने पर पृथ्वी आदि तत्त्वोंका परिज्ञान इस क्रमसे होता है-पृथ्वीका पीतवर्ण. जलका श्वेतवर्ण, अग्निका अरुण वणं और वायुका श्यामवर्ण वाली बिन्दुआस परिज्ञान होता है। तथा आकाशका उपाधिरहित शून्य रूपसे ज्ञान होता है ।। ४०|| पोतवणको बिन्दु कार्यको सम्यक् प्रकारसे सिद्धि करती है. श्वतवणंकी बिन्दु सुख-कारक है, सन्ध्याका अरुणतावाली बिन्दु भय उत्पन्न करता है, और भौंरेके समान कृष्णवणका बिन्दु हानिकारक है ।।४१॥ जोवितब्यमें, जयमें, लाभमें, धान्यको उत्पत्तिमें, वषामें, पुत्रक प्रयोजनमे, अर्थात् सन्तान आदिके विषयमें, युद्धमें, तथा गमनागमनके प्रश्नमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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