________________
श्रावकाचार-संग्रह
आलोक इव सूर्यस्य सुजनस्योपकारकृत् । ग्रन्थोऽयं सर्वसामान्यो मान्यो भवतु धीमताम् ॥१२ धर्मार्थकाममोक्षाणां सिद्धये ध्यात्वेष्टदेवताम् । भागेऽष्टमे त्रियामाया उत्तिष्ठेदुद्यतः पुमान् ॥१३ सुस्वप्नं प्रेक्ष्य न स्वयं कथ्यमद्विच सद-गरो। दुःस्वप्नं पुनरालोक्य कार्य: प्रोक्त-विपर्ययः ॥१४ समधातोः प्रशान्तस्य धार्मिकस्याहिनीरुजः । स्यातां पुंसो जिताक्षस्य स्वप्नौ सत्यौ शुभाशुभौ ॥१५ अनुभूतः श्रुतो दृष्टः प्रकृतेश्च विकारजः । स्वभावतः समुद्भूतश्चिन्तासन्ततिसम्भवः ।।१६ देवताद्युपदेशोत्थो धर्म-कर्म-प्रभावजः । पापोद्रेकसमुत्थश्च स्वप्नः स्यान्नवधा नृणाम् ॥१७ प्रकारैरादिमः षड्भिरशुभश्च शुभोऽपि च । इष्टो निरर्थकः स्वप्नः सत्यस्तु त्रिभिरुत्तरः ॥१८ रात्रेश्चतुर्षु यामेषु दृष्टः स्वप्नः फलप्रदः । मासैदशभिः षड्भिस्त्रिभिरेकेन च मात् ॥१९ निशान्ते घटिकायुग्मे दशाहात्फलति ध्रुवम् । दृष्टः सूर्योदये स्वप्नः सद्यः फलति निश्चितम् ॥२० मालास्वप्नो हि दृष्टश्च तथाधिव्याधिसम्भवः । मल-मत्रादिपीडोत्थः स्वप्न: सर्वो निरर्थकः ॥२१ अशुभः प्राक् शुभः पश्चात् शुभो वा प्रागथवाऽशुभः । पश्चात्फलप्रदः स्वप्नो दुःस्वप्ने शान्तिरिष्यते ॥२२ प्रविशत्यवनौ पूर्णनासिकापक्षमाश्रितम् । पादंशय्योत्थितो दद्यात् प्रथमं पृथिवीतले ॥२३॥ के प्रकाशके समान सज्जनोंका उपकार करनेवाला यह ग्रन्थ सर्वसाधारणजनोंको और बुद्धिमन्तों को मान्य होवे ॥१२॥ इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थोको सिद्धिके लिए इष्ट देवताका ध्यान करके प्रत्येक उद्यमशील पुरुषको रात्रिके अष्टम भागक शेष रहनेपर शयन छोड़ करके उठना चाहिए ॥१३॥
सोते समय शुभ स्वप्नको देख करके पुनः नहीं सोना चाहिए और दिनमें सद्-गुरुके आगे कहना चाहिए । अशुभ स्वप्नको देख करके उपरि-कथितसे विपरीत करना चाहिए । अर्थात् अशुभ स्वप्न देखनेके पश्चात् पुनः सो जाना चाहिए ॥१४॥ जिसके वात-पित्त आदि धातु सम है, जो प्रशान्त चित्त है, धार्मिक है, अत्यन्त नोरोग है, अर्थात् सर्वप्रकारके रोगोंसे रहित है और इन्द्रियजयी है, ऐसे पुरुषके द्वारा देखे गये शुभ और अशुभ स्वप्न सत्य होते हैं ।।१५।। अनुभूत, श्रुत, दृष्ट, प्रकृतिके विकारजनित, स्वभावतः समुत्पन्न, चिन्ताओंकी परम्परासे उत्पन्न, देवता आदिके उपदेशसे उत्पन्न, धर्म-कर्मके प्रभाव-जनित, और पापके तीव्र उदयसे दिखनेवाले, इस प्रकार मनुष्योंके स्वप्न नव प्रकारके होते हैं ॥१६-१।। इनमेंसे आदिके छह प्रकारोंसे दिखनेवाले शुभ या अशुभ स्वप्न निरर्थक होते हैं। अन्तिम तीन प्रकारोंसे दिखनेवाले स्वप्न सत्य होते हैं ॥१८॥ रात्रिके चारों ही पहरोंमें देखे गये स्वप्न फलको देनेवाले होते हैं। वह क्रमसे प्रथम प्रहर में देखा गया स्वप्न बारह मासमें, दूसरे पहर में देखा गया स्वप्न छह मासमें, तीसरे पहर में देखा गया स्वप्न तीन मासमें तथा चौथे पहर में देखा गया स्वज एक मासमें फल को देता है ।।१९।। रात्रि की अन्तिम दो घड़ी में देखा गया स्वप्न दश दिन में निश्क्यसे फलता है सूर्योदय-कालमें देखा गया स्वप्न सद्यः फल देता है ॥२०॥ माला-स्वप्न अर्थात् एकके बाद एक-एक करके देखे गये अनेक स्वप्न, तथा आधि ( मानसिक चिन्ता ) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) से उत्पन्न होनेवाले एवं मल-मूत्रादिकी पीड़ा-जनित सभी स्वप्न निरर्थक होते हैं ।।२१।। पहले अशुभ स्वप्न दिखे, पीछे शुभ स्वप्न दिखे, अथवा पहले शुभ स्वप्न दिखे और पीछे अशुभ स्वप्न दिखे, तो पीछे दिखनेवाला स्वप्न फलप्रद होता है । दुःस्वप्नके देखने पर शान्ति करना आवश्यक है। अर्थात् दुःस्वप्न देख कर उसकी शान्ति करनी चाहिए है ॥२२॥
पृथ्वीमें प्रवेश करते समय अर्थात् शय्यासे भूमिपर पैर रखते हुए सर्वप्रथम पूर्ण नासिका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.