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________________ ११२ जिसके समीप सदा उठते बैठते हैं उसके गुण दोषोंका विचारना आवश्यक है जो कार्य जिस समय करना आवश्यक है उसे उसी समय करनेका विधान १११ अकुलीन भी पुरुष शौर्य, तप, विद्या और धनके द्वारा कुलीन बन जाता है १११ बहुत जनोंके साथ बैर करनेका, स्वीकृत व्रतके त्यागका और विनष्ट वस्तुके शोक आदिका निषेध १११ स्वजातिके कष्टकी कभी उपेक्षा न करे, किन्तु आदर पूर्वक सामाजिक एकताका कार्य करे १११ अपनी जाति वालोंके साथ कलह आदिका, कुलके अनुचित कार्य करनेका, अपने अङ्गोंको बजानेका और व्यर्थके अनर्थ दण्डोंको करनेका निषेध उन्मार्ग गमनसे अपनी और परायी रक्षाका उपदेश . ११२ सन्मान-सहित दान, उचित वचन और नीति पूर्वक आचरण त्रिजगतको वश करता है, धनहीन व्यक्तिका ऊँचा वेश धारण करना, धनी पुरुषका हीन वेश धारण करना और असमर्थका समर्थ पुरुषोंके साथ बैर करना हास्यजनक होता है ११२ चोरी आदिसे धन प्राप्तिकी आशा करना, धनोपार्जनके उपायोंमें संशय करना, शक्ति होनेपर भी उद्योग नहीं करना, फल-प्राप्तिके समय आलस्य करना, निष्फल कार्यमें उद्यम करना, शत्रुपर भी शंका न करना और मूर्ख आदिके वचनोंपर विश्वास करना, विनाशका कारण है ईर्ष्यालु होकर कुलटाकी कामना करना, निर्धन होकर वेश्याको चाहना और वृद्ध होकर विवाहकी इच्छा करना हास्यास्पद है तीन प्रकारके मूौंका निरूपण ११३ तीन प्रकारके अधम और दुर्बुद्धि जनोंका निरूपण । ११३ तीन प्रकारके मरणेच्छुक और मन्द बुद्धियोंका निरूपण तीन प्रकारके मूर्ख-शिरोमणि और अनर्थके पात्र का निरूपण अपयशके पात्रोंका निरूपण ११४ गुणोंका अभ्यास नहीं करनेवाला, दोषोंका रसिक और बहुत धन-हानि करके अल्प धनकी ___रक्षा करनेवाला सम्पदाओंका स्वामी नहीं होता दुर्जन-वल्लभ पुरुषोंका और बालकोंके द्वारा भी हास्यके पात्रोंका निरूपण ११४ सभामें शोभा न पाने वाले, दुर्गतिके अतिथि और अपने मुखसे अपनेको विद्वान् कहनेवाले । पुरुष आदि सज्जनोंके द्वारा प्रशंसा नहीं पाते हैं। ११४ खुशामदी पुरुषोंके वचनोंसे अपनेको बड़ा माननेवाला, स्वयं निर्गुण होते हुए भी गुणी जनोंकी निन्दा करनेवाला, पठन-पाठन प्रारम्भ करते ही अपनेको बड़ा विद्वान् मानने वाला, दान नहीं देनेवालेकी प्रशंसा करनेवाला, और नव रसोंसे अनभिज्ञ होनेपर भी अपनेको सर्व रसोंका ज्ञाता मानने वाला व्यक्ति केवाचकी फलीके समान जानना चाहिए तीन प्रकारके उद्वेगी पुरुषोंका निरूपण ज्ञानियोंके दोष देखने वाला, दुर्जनों और गुणी जनोंका निन्दक और महापुरुषोंका अवर्णवाद करनेवाला पुरुष अनर्थ-कारक होता है ११२ ११३ . ११४ ११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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