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________________ ( १७५ ) योग्य सेवकके कर्तव्यों और गुणोंका वर्णन सेवक स्वामीके पास किस प्रकार और कहांपर बैठे सेवकका वेष स्वामीके वेषके समान या अधिक न हो सेवकके सभामें नहीं करने योग्य कार्योंका विधान स्वामीकी प्रसन्नता और अप्रसन्नता जाननेके चिन्होंका वर्णन उपाजित धनके चार भाग कर उनका धर्म कार्य, पोष्य वर्गके पोषण, भोग-उपभोगमें व्यय । करने और एक भागको भडारमें रखनेका विधान ३१ पुण्योपार्जनके लिए व्यापारीको उत्तम पुरुषार्थ करना प्रतिदिन आवश्यक है ३२ 36 * तृतीय उल्लास ३३-४१ गृहस्थको बाहरसे घर आनेपर वस्त्र-परिवर्तन और शारीरिक-शुद्धि करना आवश्यक है ३३ गृहस्थ चक्की चूल्हे आदि पाँच कार्योंके द्वारा निरन्तर त्रस और स्थावर जीवोंको हिंसा करता। है अतः उसे उसकी शुद्धिके लिए धर्मका आचरण आवश्यक है ३३ दया, दान, देव-पूजा, गुरु-भक्ति, सत्य, क्षमा, आदि धर्मोका गृहस्थको पालन करना चाहिए ३३ माध्याह्निक पूजा करके अतिथि, याचक और आश्रित जनोंको भोजन कराकर गृहस्थको स्वयं भोजन करना चाहिए ३३ भोजनके समय आये हुए व्यक्तिसे जाति, गोत्र और पठित विद्या आदिको नहीं पूछना चाहिए ३४ जिस घरसे अतिथि बिना भोजनके वापिस जाता है उसके महान् पुण्यकी हानि होती है ३४ देव, गुरु, नगर-स्वामी और कुटुम्बी जेनोंके आपद् ग्रस्त होनेपर भोजन करनेका निषेध ३४ भोजन करनेके पूर्व अपने आश्रित जनों और पशुओंके खान-पानका विचार कर ही भोजन करनेका विधान अजीर्ण होनेपर किया गया भोजन अनेक रोग उत्पन्न करता है अजीर्णके चार भेदोंका और उनके शमन करनेके उपायोंका वर्णन भोजन किस प्रकारसे करे और किस प्रकार से न करे इसका विस्तृत निरूपण जो पुरुष सुपात्रको दान देकर और परमेष्ठीका स्मरण कर भोजन करते हैं वे धन्य हैं खाने योग्य वस्तुओंके खानेके क्रमका वर्णन नहीं खाने योग्य भोजनका वर्णन समान जाति और शील वाले तथा अपनेसे अधिक आचार-विचार वाले पुरुषोंके घर भोजन ___करनेका और हीनाचारी नीच जनोंके घर भोजन नहीं करनेका विधान भोजनके पश्चात् दो सौ कदम चूमने या दो घड़ी विश्राम करनेका निरूपण ३८ घड़ीके प्रमाण जाननेका वर्णन विष-मिश्रित अन्नके जाननेकी पहिचान विष-युक्त भोज्य वस्तुओंके विकृत वर्णका निरूपण विष-मिश्रित अन्न खानेपर सिर-पीड़ा आदि शारीरिक विकारोंका वर्णन विष-युक्त अन्नके देखनेपर चकोर, कोयल और मार्जार, वानर आदि पशु-पक्षियोंके बङ्ग विकारका वर्णन * * ३६ ३७ ३८ ३८ ३९ ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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