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________________ १७ ( १७४ ) जिनमन्दिरके लिए भूमिकी परीक्षा कर उसके फलाफलका वर्णन जिनमन्दिरके लिए ग्रहण की गई भूमिके नौ भाग कर और उनमें अकारादि अक्षर लिखकर भूमिमें स्थित अस्थि-शल्य जाननेका वर्णन जिनमन्दिरको लम्बाई-चौड़ाई और ऊँचाईके प्रमाणका निरूपण मन्दिर निर्माणके पश्चात् उसे एक दिन भी ध्वजा हीन न रखने का विधान मन्दिरमें स्तम्भ, पट्टी आदिको शिल्प-शास्त्रके अनुसार लगानेका विधान प्रतिमाके योग्य काष्ठ और पाषाणकी परीक्षा प्रतिमामें दिखनेवाली डयोरेके फलाफलका विचार देव-पूजनके पश्चात् गुरूपासना और शास्त्र-श्रवणका विधान द्वितीय उल्लास २२-३२ विभिन्न तिथियों में स्नान करने के फलाफलका निरूपण अज्ञात दुष्प्रवेश एवं मलिन जलाशयमें स्नान करनेका निषेध शीतकालमें तैलमर्दनके पश्चात् उष्ण जलसे स्नान करनेका विधान रोगी पुरुषको स्नान करनेके अयोग्य नक्षत्र और दिनोंका वर्णन विभिन्न नक्षत्रों, दिनों और तिथियोंमें क्षौरकर्मका निषेध अपनी स्थिति और आयके अनुसार वेश-भूषा धारण करनेका विधान नवीन वस्त्र धारण करनेके योग्य दिन और नक्षत्र आदिका विधान विवाह आदि अवसरोंपर नवीन वस्त्र धारण करनेगें तिथि, वार और नक्षत्र आदिका विचार आवश्यक नहीं नवीन वस्त्रके नौ भाग कर उनमें देवतादिके भागोंका और उनके मूषक आदिके द्वारा काटे जाने या अग्निसे जल जानेपर फलका निरूपण कत्था, चूना और सुपारी आदिसे युक्त ताम्बूल भक्षणके गुणोंका वर्णन न्याय-नीतिके अनुसार धनोपार्जन करनेका विधान धन ही सर्व पुरुषार्थोंका कारण है अतः उत्तम उपायोंसे उसे उपार्जन कर कुटुम्ब पालन और दानादिमें लगानेका विधान हाथकी अंगुलियोंके संकेत द्वारा क्रय-विक्रयके योग्य वस्तुओंके मूल्योंका निरूपण ब्राह्मण, सैनिक, नट, जुआरी और वैश्यादिकोंको धनादिक उधार देनेका निषेध कूट नाप-तौल आदिसे उपार्जित धन अग्नि तप्त तवे पर गिरी जल-बिन्दुके समान शीघ्र नष्ट हो जाता है असत्य शपथ करनेका निषेध देव, गुरु और जीव-रक्षादिके लिए असत्य भी शपथ करनेमें पाप नहीं है जुआ आदि खेलकर धन कमाना काली कुचीसे भवनको धवल करनेकी इच्छाके समान है २८ अन्यायी पुरुषोंके धनसे और निर्माल्य आदिके द्रव्यसे धन-वृद्धिकी इच्छा विष खाकर जीवित रहनेके समान है अपनी और अपने धनकी रक्षाके लिए सेवा करनेका विधान योग्य राजा या.स्वामीके गुणोंका वर्णन २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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