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उत्तर भारतमें जैनियोंको वैसी विकट परिस्थितिका सामना नहीं करना पड़ा और इसी कारणसे इधरके जैनियोंमें यज्ञोपवीतके धारण करनेका रिवाज प्रचलित नहीं हुआ।
३५. अचित्त या प्रासुक भक्ष्य वस्तु-विचार जिसमें चेतना हो ऐसी हरितकाय वनस्पतिको सचित्त कहते हैं। भोगोपभोगपरिमाण व्रतधारीको सचित्त फल, पत्र, शाक आदिका खाना अतिचार माना गया है । पाँचवीं संचित्तत्यागप्रतिमाका धारक श्रावक तो सचित्त वस्तुके खानेका यावज्जीवनके लिए त्याग कर देता है । किन्तु वह अचित्त या प्रासुक बनाकर खा सकता है। सचित्त वस्तु अचित्त या प्रासुक कैसे होती है, इस विषयकी प्रतिपादक एक प्राचीन गाथा प्रसिद्ध है । जो इस प्रकार है
'सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिललवणेण मिस्सियं दव्वं ।
जं जंतेण य छिण्णं तं सव्वं फासुयं भणियं ।। अर्थात् जो फलादि वस्तु सूर्यके तापसे सूख गई हो, पक गई हो, अग्निसे पका ली गई हो, किसी आम्ल (खट्टे) रससे और नमक मिश्रित कर दी गई हो, जिसे चाकू आदि शस्त्रसे छिन्नभिन्न कर दिया गया हो और कोल्हू आदि यंत्रोंसे पेल या पीस दिया गया हो, वह सभी द्रव्य प्रासुक कहा गया है।
उक्त गाथाके अनुसार यद्यपि सूर्यके तापसे सूखी या पकी हुई वस्तु प्रासुक हो जाती है, पर यदि उसके भीतर गुठली या बीज आदि हों तो उनको सचित्त माना गया है, अतः उनके निकाल देनेपर ही उस फलादिको अचित्त या प्रासुक जानना चाहिए। इसी प्रकार चाकू आदिसे काटी हुई ककड़ी आदिको भी सर्वथा अचित्त नहीं समझना चाहिए, क्योंकि जिस स्थानपर वह चाकूसे काटी गई है, वह अंश या स्थान तो अचित्त हो जाता है; किन्तु उसके सिवाय शेष अंश तो सचित्त ही बना रहता है। इसी प्रकार जितने अंशमें नमक आदि मिल गया है, उतना अंश अचित्त और शेष अंश सचित्त ही बना रहता है। इसलिए अग्निसे भलीभाँति पकायी हुई वस्तुको ही अचित्त या प्रासुक मानना चाहिए।
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि वृक्षादिसे तोड़ा गया या स्वयं गिरा हुआ फलादि अचित्त है। परन्तु उनका यह मानना भ्रमपूर्ण है। जिस वनस्पतिसे फलादि भिन्न हुआ है, उसमें यद्यपि उस वनस्पतिका मूलजीव नहीं रहा है, तथापि उसके बीज, आदिके आश्रित अनेक जीव तो अभी उसमें विद्यमान ही हैं, क्योंकि खजूर आदि कुछ अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति रूप वृक्षोंके सिवाय शेष वृक्ष, लता आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक ही होते हैं और उनके पत्र, पुष्प, फल, बीज आदिके आश्रित असंख्य निगोदिया वनस्पतिकायिक जीव रहते हैं। अतः आम, केला, सेव, अंगूरादि फल, तोरई, सेम आदि फलवाले शाक और मैथी पालक आदि पत्रवाले शाक उक्त प्रकारसे अचित्त किये विना खाना दोषाधायक ही है।
३६. जल-गालन एवं प्रासुक जलपान विचार नदी-कूपादिका जल जसकायिक होनेसे सचित्त तो है ही, किन्तु गाढ़े-दोहरे वस्त्रसे अगालित जलमें त्रसजीव भी रहते हैं, यह बात आज सूक्ष्मदर्शक यंत्रसे प्रमाणित है। वस्त्र-गालित
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