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________________ ( १६३ ) जलमें भी एक मुहूर्त के पश्चात् सम्मूर्च्छन त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसा प्राचीन आचार्योंका कथन है । यथा गालितं तोयमप्युच्चैः सम्मूर्च्छति मुहूर्त्ततः । (श्रावका० भाग २ पृ० ४८१, श्लोक, ९० ) कपूर, इलायची, लवंग, फिटकरी आदिसे तथा आंवला, हरड आदिके चूर्ण से मिश्रित वस्त्र-गालित जल दो पहर अर्थात् छह घंटेतक प्रासुक रहता है और अच्छी तरहसे अग्निसे उबाला गया जल आठ पहर अर्थात् २४ घंटे तक प्रासुक रहता है, इसके पश्चात् उसमें सम्मूर्च्छन त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं । (विशेषके लिए देखें- श्रावकाचार सं० भाग २ पृष्ठ ४८१ श्लोक ९०-९१ । तथा भाग ३ पृष्ठ ४१५ श्लोक ६१) । पं० आशाधरजीने वस्त्र-गालित जलको दो मुहूर्त तक पीनेके योग्य कहा है । (देखो - भाग २, पृष्ठ २४, श्लोक १६) पं० मेधावीने इसी जलको अधं पहरके पश्चात् पीनेके अयोग्य कहा है । (देखो भाग २, पृष्ठ १२५, श्लोक ३६) । वस्त्र-गालित जल-पान करना सर्वसाधारण जैनोंका कर्त्तव्य माना गया है। स्मृतिकारों तकने वस्त्र -गालित जल पीनेका विधान किया है, जिसे कुछ श्रावकाचार-कर्ताओंने भी उद्धृत किया है । वह श्लोक इस प्रकार है स्मृति वाक्यं च दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं पटपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् ॥ अर्थात् - आँखोंसे देखकर पैर रखे, वस्त्रसे गालित जल पीछे, सत्यसे पवित्र वचन बोले और मनसे पवित्र आचरण करे । ( भाग २, पृष्ठ ४८२, श्लोक १५) । अगालित जलमें ऐसे कितने ही विषैले जीव-जन्तु रहते हैं कि उनके पेटमें चले जानेपर 'नेहरुआ' आदि भयंकर रोग हो जाते हैं, जिनसे घोर वेदना सहन करनी पड़ती है । अतः स्वास्थ्य की दृष्टिसे भी जलको वस्त्रसे छानकर पीना ही श्रेयस्कर है । शुद्धतासे तैयार किये गये घी तेल आदि द्रव पदार्थोंको खानेके लिए जब भी बर्तनमें से निकाला जाय, तब भी उसे वस्त्रसे छानकर ही काममें लेना चाहिए । लाटी संहितामें इसका स्पष्ट विधान किया गया है । (देखो भाग ३, पृ० ३, श्लोक २३) । ३७. अभक्ष्य - विचार जो वस्तु भक्षण करनेके योग्य नहीं हो, उसे अभक्ष्य कहते हैं । जो त्रस जीवों के घातसे उत्पन्न होते हैं, ऐसे मांस और मधु अभक्ष्य हैं। जिसमें त्रस जीव पाये जायें, ऐसे फलादि तथा जिनमें अनन्त स्थावर जीवोंका घात हो ऐसे आलू, मुली आदि जमीकन्द भी अभक्ष्य कहे गये हैं । जो काम विकार, प्रमाद आदि वर्धक मदिरा, भांग, चरस आदि हैं, उन्हें भी अभक्ष्य कहा गया है । जो शरीरमें रोगादिवर्धक पदार्थ हैं, उन्हें भी अभक्ष्य माना गया है और जो उत्तम पुरुषोंके सेवन करनेके योग्य नहीं, ऐसे गोमूत्र आदिको भी अभक्ष्य माना गया है । १. देखो - रत्नकरण्डक, भा० १, पृ० १०, श्लो० ८४-८६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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