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________________ ६ प्रतिमाधारी श्रावकोंको जघन्य, सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमाधारीको मध्यम और अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंको उत्कृष्ट भाव श्रावक कहा गया है। व्रतोद्योतन श्रावकाचारमें रात्रिमें भोजन त्याग, वस्त्र गालित जलपान, पञ्च परमेष्ठि-दर्शन, और जीवदया पालन करनेवालेको सामान्य रूपसे श्रावक कहा गया है।" सावयधम्मदोहाकारने लिखा है कि पञ्चमकालमें जो मद्य, मांस और मधुका त्यागी है, वह श्रावक है । (देखो-भाग १ पृ० ४९० दोहा ७७) ३४. यज्ञोपवीत जिस यज्ञोपवीतको धारण करनेके लिए वर्तमानका अधिकांश मुनि-समुदाय अपने उपदेशों द्वारा अहर्निश गृहस्थोंको प्रेरित करता रहता है और उसके धारण किये बिना उसे श्रावक धर्मका अधिकारी या मुनि दानका अधिकारी नहीं मानता है, उस यज्ञोपवीतकी चर्चा केवल जिनसेनके सिवाय किसी भी श्रावकाचार-कर्ताने नहीं की है। पण्डित आशाधरजीने 'स्यात्कृतोपनयो द्विजः' (सागार० आ० २ श्लोक १९) लिखकर महापुराण-प्रतिपादित उपनीति या उपनयनसंस्कारका उल्लेख तो किया है, पर उसकी व्याख्यामें भी स्पष्टरूपसे यज्ञोपवीतका कोई विधान नहीं किया है। पण्डित मेधावीने भी पण्डित आशाधरका अनुसरण किया है। आचार्य देवसेनने भावसंग्रहमें पूजनके समय 'मैं इन्द्र हूँ' ऐसा संकल्प करके कंकण, मुकुट, मुद्रिका इन आभूषणोंके साथ यज्ञोपवीत धारण करनेका वर्णन किया है। (देखो-भाग पृ० ४४८ गाथा ८७) यदि श्रावकको उपनयन संस्कार आवश्यक होता तो पूजनके समय उसे पहरनेका विधान क्यों किया जाता? आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें जिस प्रकारके द्विजों या ब्राह्मणोंकी सृष्टि भरत चक्रवर्तीके द्वारा कराई है और उनके लिए गर्भान्वयक्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रियाओं का विधान किया है, वह सब वर्णन सर्वज्ञ-प्रतिपादित नहीं है, किन्तु अपने समयकी परिस्थितिसे प्रेरित होकर प्रतिदिन जैनों पर ब्राह्मण धर्मके प्रचारक राजाओंके द्वारा होनेवाले अत्याचारोंके परित्राणार्थ उन्होंने लोक-प्रचलित उक्त क्रियाओंका प्रतिपादन किया है, वह सब जैन शास्त्रोंके अभ्यासियोंसे एवं भारतके इतिहाससे अभिज्ञ विद्वानोंसे अपरिचित नहीं है। श्वेताम्बरीय जैन आगमोंमें एवं पीछे रचे गये शास्त्रोंमें भी यज्ञोपवीतका कहीं कोई वर्णन नहीं है। प्रतिष्ठा शास्त्रोंमें जहाँ कहीं इसका जो कुछ वर्णन दृष्टिगोचर होता है, उसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि जब तक यह पूजा-प्रतिष्ठारूप यज्ञ किया जा रहा है, तब तक उसकी पूत्तिके लिए मैं इस संकल्पसूत्रको धारण करता हूँ। 'यज्ञोपवीत' इस समस्थित पदमें ही यह अर्थ अन्तनिहित है। दक्षिण प्रान्तमें ब्राह्मणोंके द्वारा जैनोंपर अत्यधिक अत्याचार हए हैं और उनसे अपनी रक्षा करनेके लिए उन ब्राह्मणी क्रियाओंको उन्होंने अपना लिया जिनके कि करनेपर न सम्यक्त्वकी हानि होती थी और न व्रतोंमें ही कोई दूषण लगता था।' १. भाग ३ पृ० २३२ श्लोक २४४ । २. सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । या सम्यक्त्वहानिर्न या न र तदूषणम् ।।४४६॥ [यशस्तिलक] (श्रावकाचार सं० भाग १ पृ० १७३) २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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