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________________ ( १६० ) पञ्चमीके दिन उपवास करनेका उद्देश्य पाँचवें केवलज्ञानके प्राप्त करने का है। उक्त तीनों व्रत दिनोंके उपवासोंके फलको बतलाते हुए पूज्यपाद श्रावकाचारमें कहा है अष्टमी चाष्टकर्मनी सिद्धिलाभा चतुर्दशी । पञ्चमी ज्ञानलाभाय तस्मात्त्रितयमाचरेत् ॥ (भाग ३, पृ० १९८, श्लोक ८४) अर्थात् - अष्टमी आठ कर्मोकी घातक है, चतुर्दशी सिद्धि (मुक्ति) का लाभ कराती है और पञ्चमी केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिए है, इसलिए श्रावकको इन तीनों ही पर्वके दिनोंमें उपवास पूर्वक स्वाध्याय और ध्यानमें समय बिताना चाहिए । उपवास दिन गृहारम्भ, शरीर-संस्कार और स्नान तकके त्यागनेका विधान प्रायः सभी श्रावकाचार - कारोंने किया है । नित्य पूजनके नियम वालों तकको भावपूजन करनेका निर्देश किया गया है । इस प्रकारके उपवास करनेपर ही उससे मुनि व्रत पालन करनेकी शिक्षा मिलती है और तभी उसका शिक्षा व्रत नाम सार्थक होता है । ३३. चार प्रकारके धावक जैनाचार्योंने प्रत्येक तत्त्वके वर्णनके लिए चार निक्षेपोंका विधान किया है और उनके द्वारा किसी भी वस्तु यथार्थ स्वरूपको समझनेके लिए कहा है। जैन या श्रावकका भी वर्णन उन्होंने उन्हीं नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप चार निक्षेपोंसे किया है । पण्डित आशाधरजीने जैनत्वके गुणोंसे रहित नाममात्रके जैनको भी अजैन लोगोंसे श्रेष्ठ कहा है । नाम-जैनसे भी स्थापना जैनको उत्तम कहा है; द्रव्य जैनको उससे भी उत्तम कहा है और भाव जैनको तो सर्वोत्तम महापुरुष कहा है । ' इसी प्रकार श्री अदेवने अपने व्रतोद्योतन श्रावकाचार में श्रावकोंका भी चार निक्षेपोंके द्वारा इस प्रकार वर्णन किया है जिन पुरुषोंने व्रतोंको धारण नहीं किया है, किन्तु गुरुजनोंसे व्रत - आदिकी चर्चा सुनते हैं, वे नामश्रावक हैं । जो गुरुजनोंसे व्रतादिको ग्रहण करके भी उनको पालते नहीं है, वे स्थापना श्रावक हैं । जो श्रावकके आचारसे संयुक्त हैं, दान-पूजनादि करते हैं और श्रावकके उत्तर गुणोंके धारण करनेके लिए उत्सुक है, तथा दान-पूजनादि करते हैं, वे द्रव्य श्रावक हैं। जो भावसे श्रावक व्रतोंसे सम्पन्न हैं और श्रावकके आचार पालनमें सदा जागरूक रहते हैं, वे भावश्रावक है । for transit गणना भाव श्रावकोंमें की गई है । यहाँ यह विशेष बात ध्यानमें रखना चाहिए कि जब तक अन्तरंग में सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं हुआ है, तब तक श्रावक व्रतोंको पालते हुए भी वह द्रव्यश्रावक ही है और जो सम्यक्त्वके साथ श्रावकके व्रतोंका पालन करते हैं, वे भाव श्रावक हैं । देश चारित्र या संयमासंयम लब्धिके अध्यवसाय स्थान असंख्यात बतलाये गये हैं, अतः भाव श्रावकके भी उनकी अपेक्षा सूक्ष्म दृष्टिसे असंख्यात भेद होते हैं, किन्तु स्थूल दृष्टिसे आदिक श्लोक २४५ १. सागारधर्मामृत आ० २ श्लोक ५४, भाग २ १० १५ । २. व्रतोद्योतन श्रावकाचार, २५० भाग ३ पृ० २३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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