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________________ ( १५९ ) है और चौथा भाग धर्म-कार्यमें लगाता है, वह उत्तम पुरुष है ॥१३८॥ जो व्यक्ति अपनो आयके छह भाग करके उनमेंसे तीन भाग अपने पुत्रादि पोष्य वर्गके लिए व्यय करता है, दो भाग कोषमें संचित करता है और छठा भाग दानमें व्यय करता है वह मध्यम पुरुष है ।। १३९ ।। जो व्यक्ति अपनी आयके दश भाग करके उनमेंसे छह भाग परिवार-पालनके लिए खर्च करता है, तीन भाग भविष्यके लिए संचित करता है और दशवां भाग धर्म-कार्यमें लगाता है, वह लघु या जघन्य श्रेणीका पुरुष है। वास्तवमें अतिथिके लिए जो अपनी आयका विभाग किया जाता है, उसे ही अतिथि संविभाग कहते हैं जैसा कि-पुरुषार्थानुशासनमें कहा है स्वायस्यातिथये भव्यर्यो विभागो विधीयते। अतिथेः संविभागाख्यं शीलं तज्जगजिनाः ॥ १६८ ॥-(भा० ३ पृ० ५१३) गृहस्थोमें रहनेवाला पुरुष धन-वैभव भी चाहता है, नीरोग शरीर भी चाहता है, मानसन्मानके साथ ज्ञानवान् भी होना चाहता है और निर्भय भी रहना चाहता है, अतः उक्त चारों प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिए उसे क्रमशः आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान देते रहना चाहिए। जैसा कि कहा है ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानाद् धनी नित्यं नीरोगी भेषजाद् भवेत् ।। ३२. पर्व-माहात्म्य पर्व शब्दका अर्थ है-पूरण करनेवाला दिन । इसका अभिप्राय यह है कि गृहस्थ जिस आत्मिक कार्यको सांसारिक कार्योंमें उलझे रहकरके अन्य दिनोंमें सम्पन्न नहीं कर पाता है, उसे वह पर्वके दिन पूरा करे। पर्व दो प्रकारके होते हैं-नित्य पर्व और नैमित्तिक पर्व । प्रत्येक मासकी अष्टमी, चतुर्दशी और पंचमी नित्य पर्व हैं । आष्टाह्निक, दशलक्षण, रत्नत्रय आदि नैमित्तिक पर्व हैं। प्रत्येक पक्षकी अष्टमीके दिन आरम्भ-कार्योंको छोड़कर आत्मीय कार्योंको करनेका उद्देश्य आत्मा पर लगे हुए आठ कर्मोके नाश करनेका है। आचार्य सकलकोत्तिने लिखा है अष्टम्यामुपवासं हि ये कुर्वन्ति नरोत्तमाः। हत्वा कर्माष्टकं तेऽपि यान्ति मुक्ति सुदृष्टयः ॥ ३४ ॥ (भाग २ पृष्ठ २५९) अर्थात् जो पुरुषोत्तम सम्यग्दृष्टि अष्टमीको उपवास करते हैं, वे आठ कर्मका नाशकर मोक्ष जाते हैं। इसी प्रकार चतुर्दशीके दिन उपवास करनेका उद्देश्य चौदहवें गुणस्थानको प्राप्त होकर सिद्धपद पानेका है। जैसा कि कहा है प्रोषवं नियमेव चतुर्दश्यां करोति यः। चतुर्दशगुणस्थानान्यतीत्य मुक्तिमाप्नुयात् ।। २९ ॥ (भाग २ पृ० २५९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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