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________________ । १५८ ) एकदेश इनका पालन करना बावश्यक है इस पर भी बनेक श्रावकाचारों में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। पांचवां कर्त्तव्य तप है। इसके भी दो मेद है बाहा बौर आभ्यन्तर। तथा प्रत्येकके ६६ मेद हैं। उन सबका पालन यद्यपि साधुओंका प्रधान कर्तव्य है, तथापि गृहस्थोंको यथाशक्तिअपनी परिस्थितिके अनुसार पर्वादिके दिन उपवास, एकाशन, नीरस भोजनादिके रूपमें बाह्य तप बोर अपने दोषोंको देखकर प्रायश्चित्त लेना, गुरुजनोंकी विनय करना और वैय्यावृत्त्य करना यादिके रूपमें अन्तरंग तप करना यावश्यक है। बाहा तपसे शरीरशुद्धि और अन्तरंग तपसे बात्म शुद्धि होती है। बाज-कल लोग उपवास आदिको ही तप समझते हैं, जवकि वह बाहा तप है। अपने दोषको स्वीकारना, जिसके साथ वेर-भाव हो गया हो उससे क्षमा याचना करना, अभिमानत्याग करके ज्ञान, तप, वय, बुद्धि बादिमें वृद्धजनोंका विनय-सम्मान करना अन्तरंग तप है। बाह्य तपको अपेक्षा अन्तरंग तपसे असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। शमभाव या क्षमाको धारण कर क्रोधको जीतना सबसे बड़ा धर्म या तप है। जैसा कि कहा है पठतु शात्र-समूहमनेकधा, जिनसमर्चनमर्चयतां सदा। गुरुनति कुरुतां धरतां व्रतं, यदि शमो न वृथा सकलं ततः ॥२९॥ (व्रतोद्यो० श्राव० मा० ३ पृ० २०९) अर्थात्-यदि शमभाव नहीं है तो अनेक प्रकारके शास्त्र-समूहको पढ़ना जिनेन्द्रदेवकी सदा पुजा करना, गुरुजनोंको नमस्कार करना और व्रत-धारण करना ये सब व्यर्थ हैं। छठा कर्तव्य दान है। गृहस्थ दैनिक बारम्भ-समारम्भ-जनित जो पाप-संचय करता है, उसकी शुद्धिके लिए उसे प्रतिदिन दान देनेका विधान आचार्योने किया है। यद्यपि सभी श्रावकाकारोंमें चौथे अतिथिसंविभागके अन्तर्गत बाहार, औषध, अभय और ज्ञानदानका विधान किया है, फिर सोमदेव जयसेन आदि अनेक श्रावकाचार-रचयिताबोंने देव पूजा आदि ६ कर्तव्योंके भीतर दानका पृथक् रूपसे निरूपण किया है। गृहस्थ अपनी आयका कितना भाग किस कार्यमें व्यय करे, इसका भी विभिन्न याचार्योने विभिन्न प्रकारसे वर्णन किया है। उन सबमें धर्मरलाकर जो कि इसी जीवराज ग्रन्थमालासे प्रकाशित और जयसेनाचार्य विरचित है, उसका दानके लिए आयको विभाजनका वर्णन सबसे अधिक प्रभावक है, अतः उसे यहाँ उद्धृत किया जाता है भागद्वयो कुटुम्बार्थे संचयार्थे तृतीयकः । स्वरायो यस्य धर्मार्थ तुर्यस्त्यागी स सप्तमः ॥१३८॥ भागत्रयं तु पोष्यार्थे कोषाचे तु द्वयी सदा। षष्ठं दानाय यो युङ्क्ते स त्यागी मध्यमोऽयमात् ॥१३९।। स्वस्वस्थ यस्तु षड्भागान् परिवाराय योजयेत् । त्रीन् संचयेद् दशांशं च धर्म त्यागी लघुश्च सः ॥१४०॥ भावार्थ-जो गृहस्थ अपनी आय (बामदनी) के चार भाग करके दो भाग तो कुटुम्बपरिवारके भरण-पोषणके लिए व्यय करता है, तीसरा भाग बापत्ति आदिके लिए संचित करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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