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________________ ( १५४ ) यदि वसतिकासे निषधिका नेऋत्य दिशामें हो, तो साधु संघमें शान्ति और समाधि रहती है, दक्षिण दिशा में हो तो संघको आहार सुलभता से मिलता है, पश्चिम दिशामें हो तो संघका विहार सुखसे होता है और उसे ज्ञान-संयमके उपकरणोंका लाभ होता है । यदि निषीधिका आग्नेय कोणमें हो, तो संघ में स्पर्धा अर्थात् तूं तूं - मैं मैं होती है, वायव्य दिशामें हो तो संघ में कलह उत्पन्न होता है, उत्तर दिशामें हो तो व्याधि उत्पन्न होती है, पूर्व दिशा में हो तो परस्पर में खींचातानी होती है और संघ में भेद पड़ जाता है । ईशान दिशामें हो तो किसी अन्य साधुका मरण होता है । (भगवती आराधना गाथा १९७१-१९७३) इस विवेचनसे वसतिका और निषीधिकाका भेद बिलकुल स्पष्ट हो जाता है । ऊपर उद्घृत गाथा नं. १९७० में यह स्पष्ट शब्दोंमें कहा गया है कि वसतिकासे दक्षिण, नैऋत्य और पश्चिम दिशामें निषीधिका प्रशस्त मानी गई है । यदि निषीधिका वसतिकाका ही पर्यायवाची नाम होता, सो ऐसा वर्णन क्यों किया जाता ? प्राकृत 'णिसीधिया' का अपभ्रंश ही 'निसीहिया' हुआ और वह कालान्तर में निसिया होकर आजकल नशियाके रूपमें व्यवहृत होने लगा । इसके अतिरिक्त आज कल लोग जिन-मन्दिरमें प्रवेश करते हुए 'ओं जय जय जय, निस्सही निस्सही, निस्सही, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु' बोलते हैं । यहाँ बोले जानेवाले 'निस्सही' पदसे क्या अभिप्रेत था और आज हम लोगोंने उसे किस अर्थ में ले रखा है, यह भी एक विचारणीय बात है । कुछ लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि 'यदि कोई देवादिक भगवान्‌के दर्शन-पूजनादि कर रहा हो तो वह दूर या एक ओर हो जाय ।' पर दर्शनके लिए मन्दिरमें प्रवेश करते हुए तीन बार निस्सही बोलकर 'नमोस्तु' बोलनेका यह अभिप्राय नहीं रहा है, किन्तु जैसा कि 'निषिद्धिका दंडकका उद्धरण देते हुए ऊपर बतलाया जा चुका है, वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत है । ऊपर अनेक अर्थोंमें यह बताया जा चुका है कि निसीहिया या निषीधिकाका अर्थ जिन जिन-बिम्ब, सिद्ध, सिद्ध-बिम्ब और जिनालय भी होता है । तदनुसार दर्शन करनेवाला तीन बार 'निस्सही' - जो कि 'णिसिहीए ' का अपभ्रंश रूप है— को बोलकर उसे तीन बार नमस्कार करता है । यथार्थमें हमें मन्दिरमें प्रवेश करते समय ' णमो णिसीहियाए' या इसका संस्कृत रूप 'निषीधिकाए' नमोऽस्तु, अथवा ''णिसीहियाए णमोत्यु' पाठ बोलना चाहिए । यहाँ यह शंका की जा सकती है कि फिर यह अर्थ कैसे प्रचलित हुआ - कि यदि कोई देवादिक दर्शन-पूजन कर रहा हो तो वह दूर हो जाय। मेरी समझ में इसका कारण 'निःसही या निस्सी जैसे अशुद्धपदके मूल रूपको ठीक तौरसे न समझ सकनेके कारण 'निर् उपसर्ग पूर्वक सृ' गमनार्थक धातुका आज्ञा जकारके मध्यम पुरुषको एकवचनका बिगड़ा रूप मानकर लोगोंने वैसी कल्पना कर डाली है । अथवा दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि साधुको किसी नवीन स्थानमें प्रवेश करने या वहाँसे जानेके समय निसीहिया और आसिया करनेका विधान है। उसकी नकल करके लोगोंने मन्दिर प्रवेशके समय बोले जानेवाले 'निसीहिया' पदका भी वही अर्थ लगा लिया है। साधुओंके १० प्रकारके' समाचारोंमें निसीहिया और आसिया नामके दो समाचार हैं और उनका वर्णन मूलाचारमें इस प्रकार किया गया है : १. साधुओंका अपने गुरुओंके साथ अन्य साधुओंके साथ जो पारस्परिक शिष्टाचारका व्यवहार होता है, इसे समाचार कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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