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( १५३ ) बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें किया गया है और बतलाया गया है कि जिस स्थानपर समाधिमरण करनेवाले क्षपकके शरीरका विसर्जन या अन्तिम संस्कार किया जाता है, उसे निषीधिका कहते हैं। यथा-निषीधिका-आराधकशरीर-स्थापनास्थानम् ।
(गाथा १९६७ की मूलाराधना टीका) साधुओंको आदेश दिया गया है कि वर्षाकाल प्रारम्भ होनेके पूर्व चतुर्मास-स्थापनाके साथ ही निषोधिका-योग्य भूमिका अन्वेषण और प्रतिलेखन कर लेवें। यदि कदाचित् वर्षाकालमें किसी साधुका मरण हो जाय और निषीधिका योग्य भूमि पहलेसे देख न रखी हो, तो वर्षाकालमें उसे ढूंढ़नेके कारण हरितकाय और त्रस जीवोंकी विराधना सम्भव है, क्योंकि हरितकायसे उस समय सारी भूमि आच्छादित हो जाती है । अतः वर्षावासके साथ ही निषोधिकाका अन्वेषण और प्रतिलेखन कर लेना चाहिए। भगवती आराधनाकी वे सब गाथाएँ इस प्रकार हैं:
विजहणा निरूप्यतेएवं कालगदस्स दुसरीरमंतो बहिज्ज वाहिं वा। विज्जावच्चकरा तं सयं विकिंचंति जदणाए ॥ १९६६ ॥ समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे सहेव उडुबंधे। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहि ॥ १९६७ ॥ एवंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा। वित्थिण्णा विद्वत्ता णिसीहिया दूरमागाढा ॥ १९६८ ॥ अभिसुआ असुसिराअघसा उज्जोवा बहुसमायअसिणिता । णिज्जंतुगा अहरिदा अविला य तहा अणाबाधा ।। १९६९ ॥ जा अवर दक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए।
वसघीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पसत्यत्ति ॥ १९७० ॥ ___ अब समाधिसे मरे हुए साधुके शरीरको कहाँ परित्याग करे, इसका वर्णन करते हैं इस प्रकार समाधिके साथ काल-गत हुए साधुके शरीरको वैयावृत्य करनेवाले साधु नगरसे बाहिर स्वयं ही यतनाके साथ प्रतिष्ठापन करें। साधुओंको चाहिए कि वर्षावासके तथा वर्षाऋतुके प्रारम्भमें निषीधिकाका नियमसे प्रतिलेखन कर लें, यही श्रमणोंका स्थितिकल्प है । वह निषाधिका कैसी भूमिमें हो, इसका वर्णन करते हुए कहा गया है-वह एकान्त स्थानमें हो, प्रकाश-युक्त हो, वसतिकासे न बहुत दूर हो, न बहुत पास हो, विस्तीर्ण हो, विध्वस्त या खण्डित न हो, दूर तक जिसकी भूमि दृढ़ या ठोस हो, दीमक-चींटी आदिसे रहित हो, छिद्र-रहित हो, घिसी हुई या नीचीऊँची न हो, सम-स्थल हो, उद्योतवती हो, स्निग्ध या चिकनी फिसलनेवाली भूमि न हो, निर्जन्तुक हो, हरितकायसे रहित हो, विलोंसे रहित हो, गोली या दल-दल युक्त न हो, और मनुष्य-तियंचादिकी बाधासे रहित हो । वह निषीधिका वसतिकासे नैऋत्य, दक्षिण या पश्चिम दिशामें हो तो प्रशस्त मानी गई है।
इससे आगे भगवती बाराधनाकारने विभिन्न दिशाओंमें होनेवाली निषीधिकाओंके शुभाशुभ फलका वर्णन इस प्रकार किया है :
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