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________________ ( १५२ ) पर स्थित सिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्रसे विमुक्त, नीराग, निर्मल, सिद्धोंकी तथा गुरु, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, कुलकर (गणधर) और चार प्रकारके श्रमणसंघकी पांच महाविदेहोंमें और दश भरत और दश ऐरावत क्षेत्रोंमें जो भी निषिद्धिकाएँ हैं, उन्हें नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार हो। ___इस उद्धरणसे एक बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि निषोधिका उस स्थानका नाम है, जहाँसे महामुनि कर्मोंका क्षय करके निर्वाण प्राप्त करते हैं और जहाँ पर आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, कुलकर और ऋषि, यति, मुनि, अनगाररूप चार प्रकारके श्रमण समाधिमरण करते हैं, वे सब निषीधिकाएँ कहलाती हैं। बृहत्कल्पसूत्रनियुक्तिमें निषीधिकाको उपाश्रय या वसतिकाका पर्यायवाची माना है । यथा अवसग पडिसगसेज्जाआलय, वसधी णिसीहियाठाणे। एगट्ठ वंजणाई उवसग वगडा य निक्खेवो ।। ३२९५ ॥ अर्थात्-उपाश्रय, प्रतिश्रय, शय्या, आलय, वसति, निषीधिका और स्थान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। इस गाथाके टीकाकारने निषीधिकाका अर्थ इस प्रकार किया है :"निषेधः गमनादिव्यापारपरिहारः स प्रयोजनमस्याः, तमहतीति वा नषेधिकी।" अर्थात्-गमनागमनादि कायिक व्यापारोंका परिहारकर साधुजन जहाँ निवास करें, उसे निषीधिका कहते हैं। इससे आगे कल्पसूत्रनियुक्तिकी गाथा नं० ५५४१ में भी 'निसीहिया' का वर्णन आया है पर वहाँपर उसका अर्थ उपाश्रय न करके समाधिमरण करनेवाले क्षपक साधुके शरीरको जहाँ छोड़ा जाता है, या दाहसंस्कार किया जाता है, उसे निसीहिया या निषिद्धिका कहा गया है। यहाँ टीकाकारने 'नैषधिक्यां शवप्रतिष्ठापनभूम्याम्' ऐसा स्पष्ट अर्थ किया है। जिसकी पुष्टि आगेकी गाथा नं० ५५४२ से भी होती है। भगवती आराधनामें जो कि दिगम्बर-सम्प्रदायका अति प्राचीन ग्रन्थ है-वसतिकासे निषीधिकाको सर्वथा भिन्न अर्थमें लिया है। साधारणतः जिस स्थानपर साधुजन वर्षाकालमें रहते हैं, अथवा विहार करते हुए जहाँ रात्रिको बस जाते हैं, उसे वसतिका कहा है । वसतिकाका विस्तृत विवेचन करते हुए लिखा है : जिस स्थानपर स्वाध्याय और ध्यानमें कोई बाधा न हो, स्त्री, नपुंसक, नाई, धोबी, चाण्डाल आदि नीच जनोंका सम्पर्क न हो, शीत और उष्णकी बाधा न हो, एकदम बन्द या खुला स्थान न हो, अँधेरा न हो, भूमि विषम-नीची-ऊँची न हो, विकलत्रय जीवोंकी बहुलता न हो, पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों और हिंसक जीवोंका संचार न हो, तथा जो एकान्त, शान्त, निरुपद्रव और निाक्षेप स्थान हो, ऐसे उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गिरि-कन्दरा और भूमि-गुहा आदि स्थानमें , साधुओंको निवास करना चाहिए । ये वसतिकाएँ उत्तम मानी गई हैं।' (देखो-भग० आराधना गाथा २२८-२३०, ६३३-६४१) परन्तु वसतिकासे निषीधिका बिलकुल भिन्न होती है, इसका वर्णन भगवती आराधनामें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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