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________________ ( १४७ ) बीजाक्षरोंको स्थापित करके चिन्तन या जाप करनेका विधान किया है। उक्त कमल-रत्नोंपर निहित बीजाक्षरों पर प्रदक्षिणा क्रमसे जाप करते हुए मन इधर-उधर नहीं भागता है । मनकी इसी चंचलताके रोकनेके लिए उन्होंने अन्य भी अनेक यंत्र बताये और उनपर विभिन्न बीजाक्षरोंका जाप करनेका विधान किया है इससे उत्तरोत्तर स्थिरता आती जाती है। इसी अनुक्रममें उन्होंने गणधरवलय जैसे बृहद् यंत्रका भी वर्णन किया है। (भाग १ पृष्ठ ४१२ पर दिया चित्र) मनकी स्थिरताके लिए देवसेनने लघु और बृहत् सिद्धचक्र यंत्रका भी वर्णन किया है। (देखो भाग ३ पृष्ठ ४४९ गत गाथाएँ तथा यंत्रोंके चित्र तीसरे भागके सबसे अन्तमें देखें) । वस्तुतः इन यंत्रोंको अपने सम्मुख रखकर उनमें लिखे मंत्रोंको प्रदक्षिणा क्रमसे जपनेका उद्देश्य मनकी चंचलताको रोकना था । परन्तु भट्टारकीय युगमें उनकी पूजा बनाकर यंत्रों पर द्रव्य चढ़ाया जाने लगा जिससे उनका यथार्थ उद्देश्य ही दब गया । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अमितगतिको छोड़कर अन्य किसी भी श्रावकाचार - कर्ताने अमुक प्रमाणमें अमुक मंत्र का जाप करके उसे दशमांश आहुति देनेका विधान नहीं किया है । अमितगतिने ही सर्व प्रथम 'ओं जोग्गे मग्गे' आदि प्राकृत भाषाका एक मंत्र लिखकर उसका १२ हजार प्रमाण जाप करने और १२०० प्रमाण आहुति देनेका तथा 'ओं ह्रीं णमो अरहंताणं नम:' इस मंत्र का १० हजार जाप करने और १ हजार होम करनेका स्पष्ट वर्णन किया है (देखो भाग १ पृष्ठ ४११) इसी प्रकार अमितगतिने सकलीकरणकी विधि भी सर्वप्रथम कही है । (देखो - भाग १ पृष्ठ ४.१३) परवर्ती श्रावकाचारोंमेंसे जिन श्रावकाचारकर्त्ताओंने सकलीकरण करनेका विधान किया है उनपर अमितगतिका स्पष्ट प्रभाव है । और यदि भावसंग्रहको दर्शनसारके कर्त्ता देवसेनरचित माना जावे तो भावसंग्रहका प्रभाव अमितगति पर मानना चाहिए, क्योंकि भावसंग्रह में सकलीकरण करनेका विधान किया गया है । (देखो - भाग ३ पृष्ठ ४४७ गाथा ८५ ) उक्त हवन और सकलीकरणका विधान जैन धर्मको दृष्टिसे विद्वानोंके लिए विचारणीय है । इनका वर्णन 'आचमन, सकलीकरण और हवन' शीर्षकमें कर आये हैं । २७. श्रावकोंके कुछ अन्य कर्तव्य आचार्योंने श्रावकोंके आठ मूलगुण और बारह व्रतों या उत्तरगुणोंके अतिरिक्त अन्य छह और भी प्रतिदिन करने योग्य कार्योंका विधान किया है । यथा देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥ गृहस्थोंको प्रतिदिन देवपूजा, गुरुजनोंकी उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम धारण, तपश्चरण और दान देना ये छह कार्य अवश्य करना चाहिए। यद्यपि स्वामी समन्तभद्रने देवपूजाको चौथे वैयावृत्त्य शिक्षाव्रतके अन्तर्गत और सोमदेवसूरिने पहिले सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत कहा है, परन्तु जब सर्व साधारण गृहस्थोंमें श्रावकके बारह व्रतोंका धारण एवं पालन उत्तरोत्तर कम होने लगा, तब आचार्योंने उनमें जैनत्व या श्रावकत्वको स्थिर रखनेके लिए उक्त षट् कर्तव्योंका विधान किया है। उक्त षट् कर्तव्यों में यतः देवपूजाका प्रथम स्थान है, अतः गृहस्थोंने उसे करना अपना आद्य कर्तव्य माना । शारीरिक शुद्धि करके स्वच्छ वस्त्र धारण कर अक्षत, पुष्पादि लेकर जिनेन्द्रदेवको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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