SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४६ ) मंत्रको जपते हुए मन स्थिर हो जावे, तब 'अहं' या 'सिद्ध' इस दो अक्षरी मंत्रका जाप प्रारम्भ करे। जब उसको जपते हुए मन स्थिर रहने लगे तब चार अक्षरी 'अरहंत' और पांच अक्षरी अ सि आ उ सा' आदि अधिक अक्षरों वाले मंत्रोंका जाप करे। इस प्रकार ज्यों-ज्यों स्थिरता आती जावे त्यों-त्यों अधिक अक्षर वाले मंत्रोंको जाप करनेका अभ्यास बढ़ाते जाना चाहिए। उक्त मंत्रोंके पदरूप पदस्थ ध्यानके अभ्यास हो जानेपर पिण्डस्थ ध्यानके अन्तर्गत पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और रूपवती धारणाओंका अभ्यास प्रारम्भ करे। (इन धारणाओंका वर्णन श्रावकाचार सं० के भाग ३ में पृष्ठ ५१९ पर संक्षेपसे और ज्ञानार्णवमें विस्तारसे किया गया है । जिज्ञासुओंको वहाँसे जानना चाहिए।) पिण्डस्थ ध्यानका अभ्यास हो जानेपर रूपस्थ ध्यानका प्रारम्भ करे। इसका विशद वर्णन अमितगति, वसुनन्दि आदि श्रावकाचारोंमें विस्तारसे किया गया है, (विशेष जाननेके लिए इच्छुक वहाँसे जाने)। जिन्होंने विधिवत् इस विषयके ग्रन्थोंका स्वाध्याय किया है वे जानते हैं कि आ० नेमिचन्द्रने द्रव्य संग्रहमें सर्वप्रथम ध्यान करनेके अभ्यासीके लिए कहा है मा चिट्टह मा जपह मा चिंतह किं वे जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झार्ण । अर्थात्-सर्वप्रथम कायको वशमें करनेके लिए हस्त पाद आदिके संचालन रूप कुछ भी मत बोलो अर्थात् वचन योग पर नियंत्रण स्थापित करो। तदनन्तर मनसे कुछ भी चिन्तन मत करो, जिससे कि मनोयोग पर भी नियंत्रण हो जावे इस क्रमसे तीनों योगोंके ऊपर नियंत्रण हो जानेपर आत्माका अपने आपमें निरत होना ही परम ध्यान है। यदि वास्तवमें देखा जाय तो ध्यानका विधान मुनियों के लिए है यहो कारण है कि समन्तभद्रके रत्नकरण्डकमें उसका कोई उल्लेख नहीं है। परवर्ती श्रावकाचार कर्ताओंमेंसे अनेकने सामायिकके अन्तर्गत श्रावकको ध्यान करनेका विधान किया है और अनेकने ध्यानका कोई विधान नहीं किया है। ___ सामायिक शिक्षाव्रत वालेको सर्वपापोंका नियत समयके लिए त्यागकर अपने दोषोंकी आलोचना करना, पंच परमेष्ठीकी स्तुति और वन्दना करना, प्रतिक्रमण करना, कायोत्सर्ग करना और सर्व प्राणियों पर समताभाव रखना चाहिए। अभ्यासी श्रावकको इतना करना ही पर्याप्त है किन्तु जो इससे आगे बढ़ना चाहते हैं उन्हें आत्म विशुद्धिकी वृद्धि और चंचल मनोवृत्तिकी निवृत्तिके लिए ध्यानका अभ्यास करना आवश्यक है। ध्यानका वर्णन करते हुए आचार्य अमितगतिने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि “आदिके तीन संहननोंमेंसे किसी एक संहननके धारक साधुके अन्तर्मुहर्त तक ही एक वस्तुएँ चिन्तवन करने रूप ध्यान सम्भव है। उक्त तीन संहननोंके सिवाय अन्य संहनन वाले पुरुषके तो मनका निरोध रूप ध्यान एक, दो, तीन, चार, पांच, छह आदि क्षण (समय) तक ही संभव है । (देखो भाग १ पृष्ठ ४०५ श्लोक ५-६) मनको चंचलता रोकनेके लिए अमितगतिने चार, आठ आदि पत्र वाले कमलको नाभिमें, हृदयमें, मुखमें, ललाटपर या मस्तक पर स्थापना करके उन पत्रों पर 'अ सि आ उ सा' आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy