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________________ ( १४५ ) उनके उपचारसे धर्म ध्यान कहा है। इसका कारण यह है कि गृहस्थोंके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह कुछ न कुछ रहते ही हैं, और वह अनेक प्रकारके आरम्भों में प्रवृत्त रहता है । जब वह बिना किसी बाह्य आलम्बनके ध्यान करनेको आँख बन्द करके बैठता है, तभी वे सभी करणीय गृह व्यापार उसके सामने आकरके उपस्थित हो जाते हैं ऐसी दशामें शुद्ध चिद्रूप आत्माका ध्यान कहाँ संभव है ? यथा धस्वाणारा केई करणीया अत्थि तेण ते सव्वे । झालियस पुरओ चिट्ठति णिमी लियच्छिस्स ॥ (भाग ३ पृष्ठ ४४३ गाथा ३६) गृहव्यापार युक्तेन शुद्धात्मा चिन्त्यते यदा । प्रस्फुरन्ति तदा सर्वे व्यापारा नित्यभाविताः ॥ (भाग ३ पृष्ठ ४७७ श्लोक १६८) आचार्य देवसेनका उक्त कथन कितना अनुभव -गम्य है, इसे वे ही ध्याता गृहस्थ जानते हैं, जिन्होंने कभी निरालम्ब रूपातीत ध्यानका अभ्यास करनेका प्रयत्न किया है। सालम्ब ध्यानमें पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ ध्यान आते हैं । इनमेंसे पदस्थ ध्यान पंच परमेष्ठी वाचक मंत्रोंका जाप प्रधान है जब कोई माला लेकर या अंगुलीके पर्वों परसे जाप करनेको आँख बन्द करके बैठता है, तब भी जाप करनेवालेके सामने बार-बार गृह-व्यापार आकरके उपस्थित होते हैं ऐसा प्रायः सभी जाप करनेवालोंका अनुभव है। ऐसी दशामें पूछा जा सकता है कि उस समय क्या किया जावे। इसका उत्तर यही है कि जप-प्रारम्भ करते हुए आँख बन्द करके न बैठे, किन्तु नासा-दृष्टि रखकर और सामनेकी ओर किसी वस्तुको केन्द्र बनाकर उसपर ध्यान केन्द्रित करे । ऐसा करनेपर भी जब मन घरके किसी कार्यकी ओर जावे, तब उसे सम्बोधित करते हुए विचार करे -- हे आत्मन्, तुम क्या करनेको बैठे थे और क्या सोचने लगे ? कहाँ जा पहुँचे । अरे, तुम अपने आरम्भ किये हुए भगवान् के नाम स्मरणको छोड़कर बाहिरी बातोंमें उलझ गये हो, यह बड़े दुःखकी बात है । इस प्रकार विचार करनेमें लगेगा । किन्तु फिर भी कुछ देर के बाद पुनः घरव्यापार सामने आकर खड़े होंगे। तब भी उक्त प्रकारसे अपने आपको सम्बोधित करना चाहिए । इस प्रकार पुनः पुनः अपनेको सम्बोधित करते हुए मनकी चंचलता रुकेगी, वह इधर-उधर कम भागेगा और धीरे-धीरे कुछ दिनोंमें स्थिरता आ जावेगी । For Private & Personal Use Only इस सम्बन्धमें एक बातकी ओर पाठकों या अभ्यासियोंका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि यह मंत्र जाप या ध्यानादि सामायिकके समय ही करनेका विधान है । और सामायिक करनेकी विधि यह है कि एकान्त शान्त और निरुपद्रव स्थानमें २-४ मिनटसे लेकर उत्तरोत्तर दो घड़ी ( ४८ मिनिट) तक स्थिर पद्मासनसे बैठनेका अभ्यास करे । बैठते समय में इतने समय के लिए सर्व पापोंका और गृहारम्भ करने तथा दूसरोंसे वचन बोलनेका त्याग करता हूँ ऐसा संकल्प करके बैठे । उस समय ३५ या १६ अक्षरादि वाले बड़े मंत्रोंका जाप प्रारम्भ न करे। किन्तु सर्व प्रथम 'अ' इस एकाक्षरी मंत्रका पूर्वोक्त विधिसे १०८ बार जाप करनेका अभ्यास करे । जब एकाक्षरी १. किन्नु कर्तुं त्वयाऽऽरब्धं किन्नु वा क्रियतेऽधुना । आत्मन्नारब्धमुत्सृज्य हन्त बाह्येन मुह्यसि । ( क्षत्रचूडामणि लम्ब २ श्लोक ८० ) १९ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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