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________________ ( १४ ) है। अरहन्त आदि पाँच परमेष्ठीके गुण आदिके आश्रयसे जो ध्यान किया जाता है वह सालम्ब ध्यान है और जो बिना किसी आश्रयके अपने शुद्ध आत्म-स्वरूपका चिन्तन किया जाता है वह निरालम्ब ध्यान है । ( भाग २ पृ० १९० श्लोक १२८-१३६ ) १२. प्रश्नोत्तर श्रावकाचारमें सामायिकके समय आज्ञा-विचय आदि धर्म ध्यानके करनेका निर्देश मात्र है । ( देखो-भाग २ पृ० ३४५ श्लोक ५२) १३. गुणभूषण श्रावकाचारमें भाव पूजनके अन्तर्गत पंचपरमेष्ठीके मंत्र पदोंके जापका और पिण्डस्थ आदि चारों ध्यानोंका विस्तृत वर्णन है। (देखो-भाग २ पृ० ४५०-४५९ गतश्लोक ) १४. धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचारमें जिन-पूजनके पश्चात् पंचपरमेष्ठी-वाचक मंत्रोंके जापका तो विधान है, पर ध्यानोंका कोई वर्णन नहीं है। ( देखो-भाग २ पृ० ४९३ श्लोक २१३-२१६ ) १५. लाटी संहितामें सामायिकके समय आत्माके शुद्ध-चिद्रूपके चिन्तनका तो उल्लेख है, किन्तु पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका कोई वर्णन नहीं है। (देखो-भाग ३ पृ० १२९ श्लोक १५३) १६. उमास्वामि श्रावकाचारमें सामायिकके समय या अन्य कालमें ध्यान करनेका कोई वर्णन नहीं है। १७. पूज्यपाद श्रावकाचार और व्रतसार-श्रावकाचारमें व्रतोद्योतन श्रावकाचार और श्रावकाचार सारोद्धारमें ध्यानका कोई वर्णन नहीं है। १८. भव्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययनमें पदस्थ आदि चारों प्रकारोंके ध्यानोंका, तथा पिण्डस्थ ध्यानको पार्थिवी आदि धारणाओंका विशद निरूपण है । ( देखो-भाग ३ पृ० ३९२-३९४) १९. परिशिष्टगत श्रावकाचारोंमेंसे ध्यानके भेदोंका वर्णन प्राकृतभावसंग्रह, संस्कृतभावसंग्रह और पुरुषार्थानुशासनमें विस्तारसे किया गया है। २०. कुन्दकुन्द श्रावकाचारके ग्यारहवें उल्लासमें पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका सुन्दर वर्णन किया गया है। निष्कर्ष और समीक्षा सोमदेव, अमितगति, वसुनन्दि, मेधावी, गुणभूषण, जिनदेव, देवसेन, वामदेवके और कुन्दकुन्द श्रावकाचारमें तथा पं० गोविन्द-रचित श्रावकाचारोंमें ध्यानका वर्णन है। इनमें सोमदेवके ध्यानका वर्णन सबसे भिन्न एक नवीन रूपसे किया है, जो प्रथम भाग-गत उनके उपासकाध्ययनसे ज्ञातव्य है। शेष श्रावकाचार-रचयिताओंमेंसे आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थान विचय इन चारों धर्म ध्यानोंका वर्णन तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंके अनुसार तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंका तथा पार्थिवी आदि धारणाओंका वर्णन ज्ञानार्णवमें वर्णित पद्धतिके अनुसार किया है। आचार्य देवसेन और वामदेवने अपने भावसंग्रहमें धर्म ध्यानका सालम्ब और निरालम्ब भेद करके बताया है कि पंचपरमेष्ठीके गुणोंका आलम्बन लेकर उनके स्वरूपका जो चिन्तन किया जाता है वह सालम्ब ध्यान है । बाह्य आलम्बनके बिना अपने निर्विकल्प शुद्ध चिदानन्द निजात्म-स्वरूपके चिन्तन करनेको निरालम्ब ध्यान कहते हैं। आचार्य देवसेन और उनका अनुसरण करनेवाले वामदेवका कहना है कि यह मुख्यरूपसे निरालम्ब धर्म ध्यान सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती मुनियोंके ही संभव है छठे प्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती मुनियोंके और गृहस्थारम्भ वाले पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकोंके संभव नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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