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________________ -- १४३ ) ३. महापुराणके अन्य पर्वोंमें ध्यानके भेद-प्रभेदोंका विस्तृत वर्णन होते हुए भी ३८, ३९ ४० वें पर्वमें जहाँपर कि श्रावकधर्मके अन्य कर्त्तव्यों का विस्तृत विवेचन किया गया है--ध्यान करनेका कोई विधान नहीं है । ४. पुरुषार्थसिद्धयुपायमें श्रावकधर्मका वर्णन करनेके बाद लिखा है कि यतः चरित्रके अन्तर्गत तप भी मोक्षका अंग है अतः अपने बल वीर्यको न छिपाकर तपका भी आचरण करना चाहिए तत्पश्चात् बारह तपोंका, 'छह आवश्यकोंका और गुप्ति समिति आदिका उल्लेख होते हुए भी ध्यानके भेदोंका कोई वर्णन नहीं है और जो तपादिका वर्णन किया गया है, वह मुनियोंको लक्ष्य करके ही किया गया है, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट मोक्ष पुरुषार्थकी सिद्धिका उपाय बताना ही इस ग्रन्थका मुख्य उद्देश्य है । ५. सोमदेवने सर्वप्रथम अपने उपासकाध्ययन पूजन और स्तोत्र पाठ करनेके पश्चात् णमोकार मंत्र आदिके जप करनेका विधान किया है । जाप करते समय पर्यङ्कासन से बैठकर, इन्द्रियोंको निश्चल कर अंगुली के पर्वों या मणिमुक्तादिके दानोंसे जाप करनेका उल्लेख कर बताया है कि वचन बोलकर जप करनेकी अपेक्षा एकाग्र मनसे जप करनेपर सहस्रों गुणा फल प्राप्त होता है । ( देखो - भा० १ पृ० १९१ श्लोक ५६६-५७० ) जपको करते हुए जब इन्द्रिय और शान्त हो जावे तथा ध्याता पुरुष वायुके प्रचारका ज्ञाता अर्थात् पूरक, रेचक और कुम्भक विधिसे प्राणायाममें निपुण हो जावे तब उसे ध्यान करनेका अभ्यास करना चाहिए । तत्पश्चात् उन्होंने ध्यान, ध्याता, ध्येयादिका विस्तृत एवं अनुपम वर्णन किया है । (देखो - भाग १ पृ० १९३-२१० ) इस प्रकरणमें धर्म ध्यानके आज्ञाविचय आदि भेदोंका वर्णन करते हुए भी पिण्डस्य, पदस्थ आदि भेदोंका कोई वर्णन नहीं किया गया है । ६. चारित्रसारगत - श्रावकधर्मके वर्णनमें ध्यानका कोई उल्लेख नहीं है । ७. अमितगति-श्रावकाचारमें धर्म भावनाके वर्णनके पश्चात् पन्द्रहवें परिच्छेदमें ध्यानके आर्तरौद्रादिक भेदोंका स्वरूप और उनके स्वामियोंको बताकर आदिके दो ध्यानोंको हेय और अन्तिम दो ध्यानको उपादेय कहकर धर्मध्यानका विस्तारसे वर्णन किया है । पुनः ध्येयका स्वरूप वता करके उससे पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चारों भेदोंका निरूपण किया है । पदस्थ ध्यानका वर्णन करते हुए "अ" 'अ सि आ उ सा' आदि विभिन्न पदोंके आश्रयसे ध्यान करनेका विधान किया है । इस प्रकरणमें पंच दल और अष्ट दल कमलपर विभिन्न अक्षरों और मंत्रोंको स्थापित कर उनका ध्यान करने तथा गणधरवलय यंत्र के आश्रयसे ध्यान करनेका वर्णन किया है । तदनन्तर पिण्डस्थ आदि घ्यानोंका निरूपण किया है । ८. वसुनन्दि श्रावकाचारमें भावपूजनके अन्तर्गत णमोकार मंत्रादिके जाप करनेका और पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका विस्तृत वर्णन किया गया है । ( देखो - भाग १ पृ० ४७२-४७४ ) ९. सावयवधम्मदोहा में 'अ सि आ उसा' आदि मंत्राक्षरोंके जपका विधान तो है परन्तु पिण्डस्थ आदि ध्यानों का कोई उल्लेख नहीं है । ( देखो - भाग १ पृ० ५०२ दोहा २१२-२१७ ) १०. सागारधर्माभृतमें सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत मंत्र जापका विधान है, परन्तु ध्यान आदिका कोई वर्णन नहीं है । ( देखो - भाग २ पृ० ५४ श्लोक ३१ ) ११. धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें मंत्र जापका और सालम्ब और निरालम्ब ध्यानोंका वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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