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________________ (१४२ ) उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, यहाँ तक कि लयमें वे दोनों उस चरम सीमाको पहुँच जाती हैं, जो कि छद्मस्थ वीतरागके अधिकसे अधिक संभव है। उपर्युक्त विवेचनसे यद्यपि पूजा, स्तोत्रादिकी उत्तरोत्तर महत्ताका स्पष्टीकरण भली भांति हो जाता है, पर उसे और भी सरल रूपमें सर्वसाधारण लोगोंको समझानेके लिए यहाँ एक उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार शारीरिक सन्तापको शांति और स्वच्छताकी प्राप्तिक लिए प्रतिदिन स्नान आवश्यक है, उसी प्रकार मानसिक सन्तापकी शांति और हृदयकी स्वच्छता या निर्मलताकी प्राप्तिके लिए प्रतिदिन पूजा-पाठ आदि भी आवश्यक जानना चाहिए । स्नान यद्यपि जलसे ही किया जाता है, तथापि उसके पाँच प्रकार हैं-१ कुएँसे किसी पात्र-द्वारा पानी निकाल कर, २ बालटी आदिमें भरे हुए पानीको लोटे आदिके द्वारा शरीर पर छोड़ कर, ३ नलके नीचे बैठ कर, ४ नदी, तालाब आदिमें तैरकर और ५ कुआँ, बावड़ी आदिके गहरे पानीमें डुबकी लगाकर । पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि कुएंसे पानी निकाल कर स्नान करनेमें श्रम अधिक है और शान्ति कम। पर इसकी अपेक्षा किसी बर्तन में भरे हुए पानीसे लोटे द्वारा स्नान करने में शान्ति अधिक प्राप्त होगी ओर श्रम कम होगा। इस दूसरे प्रकारके स्नानसे भी तीसरे प्रकारके स्नानमें श्रम और भी कम है और शांति और भी अधिक । इसका कारण यह है कि लोटेसे पानी भरने और शरीर पर डालनेके मध्यमें अन्तर आ जानेसे शान्तिका बीच-बीचमें अभाव भी अनुभव होता था, पर नलसे अजस्र जलधारा शरीर पर पड़नेके कारण स्नान-जनित शान्तिका लगातार अनुभव होता है। इस तीसरे प्रकारके स्नानसे भी अधिक शान्तिका अनुभव चौथे प्रकारके स्नानसे प्राप्त होता है, इसका तैरकर स्नान करनेवाले सभी अनुभवियोंको पता है। पर तैरकर स्नान करने में भी शरीरका कुछ न कुछ भाग जलसे बाहिर रहनेके कारण स्नान-जनित शांतिका पूरापूरा अनुभव नहीं हो पाता । इस चतुर्थ प्रकारके स्नानसे भी अधिक आनन्द और शान्तिकी प्राप्ति किसी गहरे जलके भीतर डुबको लगाने में मिलती है। गहरे पानीमें लगाई गई थोड़ी सी देरकी डुवकीसे मानों शरीरका सारा सन्ताप एकदम निकल जाता है, और डुबकी लगाने वालेका दिल आनन्दसे भर जाता है। उक्त पाँचों प्रकारके स्नानोंमें जैसे शरीरका सन्ताप उत्तरोत्तर कम और शान्तिका लाभ उत्तरोत्तर अधिक होता जाता है, ठीक इसी प्रकारसे पूजा, स्तोत्र आदिके द्वारा भक्त या आराधकके मानसिक सन्माप उत्तरोत्तर कम और आत्मिक शान्तिका लाभ उत्तरोत्तर अधिक होता है। स्नानके पाँचों प्रकारोंको पूजा-स्तोत्र आदि पाँचों प्रकारके क्रमशः दृष्टान्त समझना चाहिए। जप, ध्यान और समाधि ( लय ) का इतना अधिक महत्त्व होते हुए भी ध्यानका और उसके भेदोंका वर्णन सर्वप्रथम किस श्रावकाचारमें पाया जाता है यह अन्वेषणीय है। १. रत्नकरण्डकमें सामायिक शिक्षाव्रतके भीतर सामायिकके समय-पर्यन्त समस्त पापोंका त्याग कर संसारके अशरण, अशुभ, अनित्य और दुःखरूप चिन्तनका तथा मोक्षका इससे विपरीत स्वरूप चिन्तन करनेका निर्देश मात्र है । परन्तु ध्यान आदिका कोई वर्णन नहीं है। २. स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षामें भी सामायिकके समय एकाग्रमन होकर कायको संकोचकर स्व-स्वरूपमें लीन होनेका और वन्दनाके अर्थको चिन्तन करनेका विधान है। पर ध्यानके भेदादिका कोई उल्लेख नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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