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________________ ( १४८ ) गुण-गान पूर्वक चढ़ानेका नाम देव पूजा है । यदि विना अक्षत - पुष्पादि चढ़ाये केवल स्तुति करके जिनदेवको वन्दन- नमस्कार किया जाता है तो उसे देव-दर्शन कहा जाता है । आज समस्त भारतवर्षमें जैन कहलानेवाला प्रत्येक व्यक्ति जिनेन्द्रदेवका प्रतिदिन प्रातः काल दर्शन करना अपना कर्त्तव्य मानता है । श्री अभ्रदेवने अपने व्रतोद्योतन श्रावकाचारके प्रारम्भमें कहा हैभव्येन प्रातरुत्थाय जिनबिम्बस्य दर्शनम् । विधाय स्वशरीरस्य क्रियते शुद्धिरुत्तमा ॥ २॥ (श्रावकाचार सं० भाग ३, पृष्ठ २०६ ) अर्थात् भव्य पुरुषको प्रातः काल उठकर शरीरकी शुद्धि करने जिनबिम्बका दर्शन करना चाहिए । आचार्य पद्मनन्दीने अपनी पञ्चविंशतिकाके उपासक संस्कार नामक अध्ययनमें देव और गुरुके दर्शन और वन्दनपर जोर देते हुए कहा है प्रातरुत्थाय कर्त्तव्यं देवता- गुरुदर्शनम् । भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ॥ १६ ॥ ( श्रावका० भाग ३, पृष्ठ ४२८) अर्थात् श्रावकोंको प्रातः काल उठ करके भक्तिके साथ देव और गुरुका दर्शन और उनकी वन्दना करनी चाहिए । प्रायः सभी श्रावकाचारोंमें जिनेन्द्रदेवके दर्शनको जाते हुए ईर्यासमितिसे गमन करनेका विधान किया है। २८. जिनेन्द्र-दर्शनका महत्त्व यद्यपि प्रत्येक जैनी जिनेन्द्रदेव के दर्शनके महत्त्वसे भलीभाँति परिचित है और दर्शनाष्टक आदि स्तोत्रोंमें उसके विशाल फलका वर्णन किया गया है, तथापि उसके पूर्व जिनेन्द्र-दर्शनार्थ जानेका विचार करनेपर, गमन करनेपर, और साक्षात् जिनेन्द्र-दर्शन करनेपर क्या और कैसा फल प्राप्त होता है, यह दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थोंके आधारपर यहाँ दिया जाता है । दि० परम्परामें रविषेणाचार्य रचित 'पद्मचरित' और श्वे० परम्परामें विमलसूरि रचित 'पउमचरिय' में कहा है—जब कोई व्यक्ति जिनेन्द्रदेव के दर्शनार्थ जानेका मनमें विचार करता है. तब वह चतुर्थभक्त अर्थात् एक उपवासका फल प्राप्त करता है। जब वह चलनेके लिए उद्यत होता है, तब षष्ठभक्त अर्थात् दो उपवासका फल पाता है। जब वह जिनेन्द्र-दर्शनार्थ गमन करनेका उपक्रम करता है, तब अष्टमभक्त अर्थात् तीन उपवासका फल पाता है । गमन प्रारम्भ करनेपर ददमभक्त ( चार उपवास ) का फल, कुछ दूर चलनेपर द्वादशभक्त (पाँच उपवास) का फल, आधे मागमें पहुँचनेपर एक पक्षके उपवासका फल, जिनेन्द्र भवनके दिखनेपर एक मासके उपवासका फल, जिन भवन पहुँचनेपर छह मासके उपवासका फल, मन्दिरकी देहलीपर पहुंचते हुए एक वर्षके उपवासका फल, जिनेन्द्रदेवकी प्रदक्षिणा करते समय सौ उपवासका फल, जिनेन्द्रदेवके नेत्रोंसे दर्शन नेपर हजार उपवासका फल और जिनेन्द्रदेवका स्तवन करनेपर अनन्त पुष्यका फल प्राप्त करता है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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