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________________ ( १३८ ) जो कि हमारे द्वारा 'सर्वशत्रुं छिन्द छिन्द, भिन्द भिन्द', बोलनेपर हमारे शत्रुओंका विनाश कर देंगे । फिर यह भी तो विचारणीय है कि हमारा शत्रु भी तो यही पद या वाक्य बोल सकता है ! तब वैसी दशामें जिनदेव आपकी इष्ट प्रार्थनाको कार्यरूपसे परिणत करेंगे, या आपके शत्रुकी प्रार्थनापर ध्यान देंगे ? वास्तविक बात यह है कि क्रियाकाण्डी भट्टारकोंने ब्राह्मणी शान्तिपाठ आदिकी नकल करके उक्त प्रकार पाठोंको जिनदेवोंके नामोंके साथ जेन रूप देनेका प्रयास किया है और सम्यक्त्वके स्थानपर मिथ्यात्वका प्रचार किया है। वास्तविक शान्तिपाठ तो 'क्षेमं सर्वप्रजानां ' आदि श्लोकोंवाला ही है, जिसमें सर्व सौख्यप्रदायी जिनधर्मके प्रचारकी भावना की गई है और अन्तमें 'कुर्वन्तु जगतः शान्ति' वृषभाद्या जिनेश्वराः की निःस्वार्थ निष्काम भावना भायी गयी है । जैन पद्धति की जानेवाली विवाह - विधिके अन्तमें तथा मूर्ति प्रतिष्ठाके अन्तमें किया जानेवाला पुण्याहवाचन भी वैदिक पद्धतिके अनुकरण हैं और नियत परिणाममें किये जानेवाले मंत्रजापोंके दशमांश प्रमाण हवन आदिका किया कराया जाना भी अन्य सम्प्रदायका अन्धानुसरण है, फिर भले ही उसे जैनाचारमें किसीने भी सम्मिलित क्यों न किया हो ? धर्मकी सारी भित्ति सम्यक्त्वरूप मूल नींवपर आश्रित है । सम्यक्त्वके दूसरे निःकांक्षित अंगके स्वरूपमें बतलाया गया है कि धर्म धारण करके उसके फलस्वरूप किसी भी लौकिक लाभ की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। यदि कोई जैनी इस नि. कांक्षित अंगका पालन नहीं करता है, प्रत्युत धर्मसाधन या अमुक मंत्रजापसे किसी लौकिक लाभको कामना करता है, तो उसे मिथ्यात्वी जानना चाहिए । २६. स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और लय सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत देवपूजनका विधान किया है और देवपूजाके समय छह क्रियाओंके करनेका उल्लेखकर उनका विस्तृत वर्णन किया है । वे छह क्रियाएँ इस प्रकार हैं- स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ॥ (भाग १, पृष्ठ २२९, श्लोक ८८०) -सन्त पुरुषोंने गृहस्थोंके लिए देवोपासनाके समय स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव (शास्त्रभक्ति और स्वाध्याय) इन छह क्रियाओं का विधान किया है । अर्थात् स्नपन नाम अभिषेकका है। इसका विचार 'जलाभिषेक या पञ्चामृताभिषेक' शीर्षक में पहिले किया जा चुका है । स्नपन यतः पूजनका ही अंग है, अतः उसका फल भी पूजनके ही अन्तर्गत जानना चाहिए। हालांकि आचार्योंने एक-एक द्रव्यसे पूजन करनेका और जल-दुग्ध आदि अभिषेक करनेका फल पृथक्-पृथक् कहा है । पर उन सबका अर्थ स्वर्ग-प्राप्तिरूप एक ही है। श्रुतस्तव नाम सबहुमान जिनागमकी भक्ति करना और उसका स्वाध्याय करना श्रुतस्तव कहलाता है । स्नपन पूजन और श्रुतस्तवके सिवाय शेष जो तीन कर्तव्य और कहे हैं - जप, ध्यान और लय । इनका स्वरूप आगे कहा जा रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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