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सर्व साधारण लोग पूजा, जप आदिको ईश्वर-आराधनाके समान प्रकार समझकर उनके फलको भी एक-सा ही समझते हैं। कोई विचारक पूजाको श्रेष्ठ समझता है, तो कोई जप, ध्यान आदिको । पर शास्त्रीय दृष्टिसे जब हम इन पाँचोंके स्वरूपका विचार करते हैं तो हमें उनके स्वरूपमें ही नहीं, फलमें भी महान् अन्तर दृष्टिगोचर होता है । आचार्योंने इनके फलको उत्तरोत्तर -गुणित बतलाया है। जैसा कि इस अत्यन्त प्रसिद्ध श्लोकसे सिद्ध है
पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्र - कोटिसमो जपः । जप - कोटिसमं ध्यानं ध्यान कोटिसमो लयः ॥
अर्थात् – एक कोटिवार पूजा करनेका जो फल है, उतना फल एकबार स्तोत्र पाठ करनेमें है । कोटि वार स्तोत्र पढ़नेसे जो फल होता है, उतना फल एक वार जप करनेमें होता है । इसी प्रकार कोटि जपके समान एक वारके ध्यानका फल और कोटि ध्यानके समान एक वारके लयका फल जानना चाहिए ।
पाठकगण शायद उक्त फलको बांचकर चौंकेंगे और कहेंगे कि ध्यान और लयका फल तो उत्तरोत्तर कोटिगुणित हो सकता है, पर पूजा स्तोत्र और जपका उत्तरोत्तर कोटि-गुणित फल कैसे सम्भव है ? उनके समाधानार्थ यहाँ उनके स्वरूपपर कुछ प्रकाश डाला जाता है :
१. पूजा - पूज्य पुरुषोंके सम्मुख जानेपर अथवा उनके अभाव में उनकी प्रतिकृतियोंके सम्मुख जानेपर सेवा-भक्ति करना, सत्कार करना, उनकी प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना, उनके गुणगान करना और घरसे लाई हुई भेंटको उन्हें समर्पण करना पूजा कहलाती है । वर्तमानमें विभिन्न सम्प्रदायोंके भीतर जो हम पूज्य पुरुषोंकी उपासना-आराधनाके विभिन्न प्रकारके रूप देखते हैं, वे सत्र पूजाके ही अन्तर्गत जानना चाहिए। जैनाचार्योंने पूजाके भेद-प्रभेदों का बहुत ही उत्तम रीति से सांगोपांग वर्णन किया है । प्रकृतमें हमें स्थापना - पूजा और द्रव्य - पूजासे प्रयोजन है। क्योंकि भावपूजा में तो स्तोत्र, जप आदि सभीका समावेश हो जाता है । हमें यहाँ वर्तमानमें प्रचलित पद्धतिवाली पूजा ही विवक्षित है और जन-साधारण भी पूजा-अर्चासे स्थापना पूजा या द्रव्यपूजाका ही अर्थ ग्रहण करते हैं ।
२. स्तोत्र - वचनोंके द्वारा गुणोंकी प्रशंसा करनेको स्तवन या स्तुति कहते हैं । जैसा अरहंतदेव के लिए कहना - तुम वीतराग विज्ञानसे भरपूर हो, मोहरूप अन्धकारके नाश करनेके लिए सूर्यके समान हो, आदि । इसी प्रकारकी अनेक स्तुतियोंके समुदायको स्तोत्र कहते हैं । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला, कनड़ी, तमिल आदि भाषाओंमें स्व या परनिर्मित गद्य या पद्य रचनाके द्वारा पुज्य पुरुषोंकी प्रशंसामें जो वचन प्रकट किये जाते हैं, उन्हें स्तोत्र कहते हैं ।
३. जप - देवता - वाचक या बीजाक्षररूप मंत्र आदिके अन्तर्जल्परूपसे वार वार उच्चारण करनेको जप कहते हैं । परमेष्ठी वाचक विभिन्न मंत्रोंका किसी नियत परिमाण में स्मरण करना जप कहलाता है ।
४. ध्यान - किसी ध्येय वस्तुका मन ही मन चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। ध्यान शब्दका यह यौगिक अर्थ है । सर्व प्रकार के संकल्प-विकल्पोंका अभाव होना; चिन्ताका निरोध होना यह ध्यान शब्दका रूढ अर्थ है, जो वस्तुतः लय या समाधिके अर्थको प्रकट करता है ।
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