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( १३७ ) प्रतिष्ठित प्रतिमामें आवाहन और विसर्जन नहीं होता, केवल चौदह ही उपचार होते हैं । अथवा आवाहन और विसर्जनके स्थानमें मन्त्रोच्चारण-पूर्वक पुष्पाञ्जलि दी जाती है। नवीन प्रतिमामें सोलह उपचारवाली ही पूजा होती है।
जैन पूजापद्धति उक्त पूजापद्धतिको जैन परम्परामें किस प्रकारसे परिवर्धित करके अपनाया गया है, यह उमास्वामि-श्रावकाचारके श्लोक १३६ और १३७ में देखिये । यहाँ इक्कीस प्रकारकी बतलायी गयी है । यथा-१. स्नानपूजा, २. विलेपनपूज, ३. आभूषणपूजा, ४. पुष्पपूजा, ५. सुगन्धपूजा, ६. धूपपूजा, ७. प्रदीपपूजा, ८. फलपूजा, ९. तन्दुलपूजा, १०.पत्रपूजा, ११.पुंगीफलपूजा, १२. नैवेद्यपूजा, १३. जलपूजा, १४. वसनपूजा, १५. चमरपूजा, १६. छत्रपूजा, १७. वादित्रपूजा, १८. गीतपूजा, १९. नृत्यपूजा, २० स्वस्तिकपूजा और २१. कोषवृद्धिपूजा अर्थात् भण्डारमें द्रव्य देना।
पाठक स्वयं ही अनुभव करेंगे कि जैन परम्परामें प्रचलित अष्ट द्रव्योंमेंसे जो द्रव्य बैदिकपरम्पराकी पूजामें नहीं थे, उनको निकाल करके किस विधिसे युक्तिके साथ इक्कीस प्रकारके पूजनका विधान उमास्वामीने अपने श्रावकाचारमें किया है। ( देखो-भाग ३, पृ० १६४, श्लोक १३५-१३७
इससे आगे चलकर उमास्वामीने पंचोपचारवाली पूजाका भी विधान किया है। वे पाँच उपचार ये हैं-१. आवाहन, २. संस्थापन, ३. सन्निधीकरण, ४. पूजन और ५. विसर्जन । इस पंचोपचारी पूजनका विधान धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें पं० मेधावीने तथा लाटीसंहितामें पं० राजमल्लजीने भी किया है।
शान्तिमंत्र, शान्तिधारा, पुण्याहवाचन और हवन यद्यपि जैनधर्म निवृत्ति-प्रधान है और उसमें पापरूप अशुभ और पुण्यरूपे शुभ क्रियाओंकी निवृत्ति होने तथा आत्मस्वरूपमें अवस्थिति होनेपर ही मुक्तिकी प्राप्ति बतलायी गयी है । पर यह अवस्था वीतरागी साधुओंके ही संभव है; सरागी श्रावक तो उक्त लक्ष्यको सामने रखकर यथासंभव अशुभ क्रियाओंकी निवृत्तिके साथ शुभक्रियाओंमें प्रवृत्ति करता है । इसी दृष्टिसे आचार्योंने देवपूजा आदि कर्तव्योंका विधान किया है । वर्तमानमें निष्काम वीतरागदेवके पूजनका स्थान सकाम देवपूजन लेता जा रहा है और जिनपूजनके पूर्व अभिषेकके समय शान्तिधारा बोलते हुए तथा पूजनके पश्चात् शान्तिपाठके स्थानपर या उसके पश्चात् अनेक प्रकारके छोटे-बड़े शान्तिमंत्र बोलनेका प्रचार बढ़ता जा रहा है। इन शान्तिमंत्रोंमें बोले जानेवाले पदों एवं वाक्योंपर बोलनेवालोंका ध्यान जाना चाहिए कि क्या हमारे वीतरागी जिनदेव कोई अस्त्र-शस्त्र लेकर बैठे हुए हैं १. 'प्रतिष्ठितप्रतिमायामावाहन-विसर्जनयोरभावेन चतुर्दशोपचारेव पूजा। अथवा आवाहन-विसर्जनयोः ___ स्थाने मन्त्रपुष्पाञ्जलिदानम् । नूतनप्रतिमायां तु षोडशोपचारैव पूजा । (संस्काररत्नमाला पृष्ठ २७) । २. श्रा० सं० भाग ३, पृष्ठ १६५, श्लोक १४७-१४८ । ३. श्रा० सं० भाग ३, पृष्ठ १५६, श्लोक ५६ । ४. श्रा० सं० भाग ३, पृष्ठ १३१-१३२, श्लोक १७३-१७४।
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