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________________ ( १३६ ) __ अर्थात्-हे दिग्पालो, तुम लोग सावधान होकर अपनी-अपनी दिशाका संरक्षण करो और अभिषेक करनेके इस मध्यवर्ती स्थानमें किसी भी देवको प्रवेश मत करने दो। __यह व्यवस्था ठीक उसी प्रकारकी है, जैसीकी आज भी किसी महोत्सव या सभा आदिके अधिवेशनके समय कमाण्डर अपने सैनिकोंको, या स्वयंसेवकनायक अपने स्वयंसेवकोंको रंगमंच या सभामंडपके सर्व ओर नियुक्त करके उन्हें शान्ति बनाये रखने और किसीको भी रंगमंच या सभा-मंडपमें प्रविष्ट नहीं होने देनेके लिए देता है। जब उक्त कार्य सम्पन्न हो जाता है तो इन नियुक्त पुरुषोंको धन्यवादके साथ पारितोषिक देकर विसर्जित करता है। तीर्थंकरोंके जन्माभिषेकके समयकी यह व्यवस्था आज भी लोग पञ्चामृताभिषेकके समय करते हैं। पर यह बताया जा चुका है कि नबीन मूत्तिकी प्रतिष्ठाके समय जन्मकल्याणकके दिन बनाये गये सुमेरु पर्वत पर ही यह सब किया जाना चाहिए। पञ्चकल्याणकोंसे प्रतिष्ठित मृत्तिका प्रतिदिन जन्मकल्याणककी कल्पना करके उक्त विधि-विधान करना उचित नहीं है, क्योंकि मुक्तिको प्राप्त तीथंकरोंका न आगमन ही होता है और न वापिस गमन ही। अतएव ऊपर उद्धृत प्रतिष्ठा दीपकके उँल्लेखानुसार जिनबिम्बका केवल जलादि अष्टद्रव्योंसे पूजन ही करना शास्त्र-विहित मार्ग है। प्रतिमाके सम्मुख विद्यमान होते हुए न आह्वानन आदिकी आवश्यकता है और न विसर्जन की ही। पूर्व कालमें चतुर्विंशति-तीर्थंकर-भक्ति, सिद्ध भक्ति आदिके बाद शान्ति भक्ति बोली जाती थी, आज उनका स्थान चौबीस तीर्थंकर पूजा और सिद्ध पूजाने तथा शान्ति भक्तिका स्थान वर्तमान में बोले जानेवाले शान्ति पाठने ले लिया है, अतः पूजनके अन्तमें शान्ति पाठ तो अवश्य बोलना चाहिए। किन्तु विसर्जन-पाठ बोलना निरर्थक ही नहीं, प्रत्युत भ्रामक भी है, क्योंकि मुक्तात्माओंका न आगमन ही संभव है और न वापिस गमन ही। हिन्दू-पूजा पद्धति या वैदिकी पूजा-पद्धतिमें यज्ञके समय आहत देवोंके विसर्जनार्थ यही 'आहूता ये पुरा देवा' श्लोक बोला जाता है । २४. वैदिकपूजा-पद्धति वैदिकधर्ममें पूजाके सोलह उपचार बताये गये हैं- १. आवाहन, २. आसन, ३. पाद्य, ४. अर्घ्य, ५. आचमनीय, ६. स्नान, ७. वस्त्र, ८. यज्ञोपवीत, ९. अनुलेपन या गन्ध, १०. पुष्प, ११. धूप, १२. दीप, १३. नैवेद्य, १४. नमस्कार, १५. प्रदक्षिण और १६. विसर्जन और उद्वासन । विभिन्न ग्रन्थोंमें कुछ भेद भी पाया जाता है किसीमें यज्ञोपवीतके पश्चात् भूषण और प्रदक्षिणा या नैवेद्यके बाद ताम्बूलका उल्लेख है, अतः कुछ ग्रन्थों में उपचारोंकी संख्या अठारह है, किसीमें आवाहन नहीं है, किन्तु आमनके बाद स्वागत और आचमनीयके बाद मधुपर्क है। किसी स्तोत्र और प्रणाम भी है । जो वस्त्र और आभूषण समर्पण करने में असमर्थ है, वह सोलहमेंसे केवल दश उपचारवाली पूजा करता है। जो इसे भी करने में असमर्थ है, वह केवल पुष्पोपचारी पूजा करता है। १. श्री पं० कैलाशचन्द्रजी लिखित उपासकाध्ययनकी प्रस्तावनासे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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