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________________ ( १३५ ) २३. आवाहन और विसर्जन सोमदेवने पूजनके पूर्व अभिषेकके लिए सिंहासन पर जिनविम्बके विराजमान करनेको स्थापना कहा है और उसके पश्चात् लिखा है कि इस अभिषेक महोत्सवमें कुशल-क्षेम-दक्ष इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण वायु, कुबेर और ईश, तथा शेष चन्द्र आदि आठ प्रमुख ग्रह अपने-अपने परिवारके साथ आकर और अपनी-अपनी दिशामें स्थित होकर जिनाभिषेकके लिए उत्साही पुरुषोंके विघ्नोंको शान्त करें। (श्रावकाचार सं० भाग १ पृष्ठ १८२ श्लोक ५०४) देवसेनने प्राकृत भावसंग्रहमें सिंहासनको ही सुमेरु मानकर उसपर जिनबिम्बको स्थापित करनेके बाद दिग्पालोंको आवाहन करके अपनी-अपनी दिशामें स्थापित कर और उन्हें यज्ञ भाग देकर तदनन्तर जिनाभिषेक करनेका विधान किया है । (श्रावकाचार सं० भाग ३ पृष्ठ ४४८ गाथा ८८-९२) अभिषेकके पश्चात् जिनदेवका अष्ट द्रव्योंसे पूजन करके, तथा पञ्च परमेष्ठीका ध्यान करके पूर्व-आहूत दिग्पाल देवोंको विसर्जन करनेका विधान किया है । यथा झाणं झाऊण पुणो मज्झाणिलवंदणत्थ काऊण । . उवसंहरिय विसज्जउ जे पुवावाहिया देवा ॥ (भाग ३ पृष्ठ ४५२ गाथा १३२) ___ अर्थात्-जिनदेवका ध्यान करके और माध्याह्निक वन्दन-कार्य करके पूजनका उपसंहार करते हुए पूर्व आहूत देवोंका विसर्जन करे। वामदेवने संस्कृत भावसंग्रहमें भी उक्त-अर्थको इस प्रकार कहा है स्तुत्वा जिनं विसापि दिगीशादि मरुद्-गणान् । अचिंते मूलपीठेऽथ स्थापयेज्जिननायकम् ॥ (भाग ३ पृष्ठ ४६८ श्लोक ४७) अर्थात्-अभिषेकके बाद जिनदेवकी स्तुति करके और दिग्पालादि देवोंको विसर्जित करके जिनबिम्बको जहाँसे उठाया था, उसी मूलपीठ (सिंहासन) पर स्थापित करे । उक्त उल्लेखोंसे यह बात स्पष्ट है कि अभिषेकके समय आहूत दिग्पालादि देवोंके ही विसर्जनका विधान किया गया है और उन्हींको लक्ष्य करके यह बोला जाता है आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम् । ते मयाऽभ्यचिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम् ।। अर्थात्-जिन दिग्पालादि देवोंका मैंने अभिषेकके पहिले आवाहन किया था, वे अपने यज्ञ-भागको लेकर यथा स्थान जावें। यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि जिनाभिषेकके समय इन दिग्पाल देवोंके आवाहनकी क्या आवश्यकता है ? इसका समाधान मिलता है श्री रयधुरचित 'वड्ढमाणचरिउ' से। वहाँ बतलाया गया है कि भ० महावीरके जन्माभिषेकके समय सौधर्म इन्द्र सोम, यम, वरुण आदि दिग्पालोंको बुलाकर और पांडुक शिलाके सर्व ओर प्रदक्षिणा रूपसे खड़े कर कहता हैणिय णिय दिस रक्खडु सावहाण, मा कोवि विसउ सुरु मज्झ ठाण । (ब्यावर भवन प्रति, पत्र ३६ ए) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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