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साथ यक्ष-यक्षीकी स्थापना करे । पुनः मंत्र बीजाक्षरोंसे सकलीकरण करके अपनेको शुद्धकर अष्टद्रव्योंसे जिनपूजा प्रारम्भ करे । तत्पश्चात् पूर्व-आहूत देवोंको पूजकर उनका विसर्जन करे । (देखो भा० ३ पृ० ३९५-३९६ श्लोक ३४३-३५६)
परिशिष्ट में दिये गये श्रावक-धर्मका वर्णन करनेवाले अंशोंमेंसे आचार्य कुन्दकुन्दके चारित्र - is और उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्यायमें पूजनका कोई वर्णन नहीं है। शिवकोटिकी रत्नमालामें केवल इतना वर्णन है कि नन्दीश्वर पर्वके दिनोंमें बलि-पुष्प संयुक्त शान्तिभक्ति करनी चाहिए (देखो - भा० ३ पृ० ४१४ श्लोक ४९ )
आचार्य रविषेणके पद्मचरितगत श्रावकधर्मके वर्णनमें भी जिन-पूजनका कोई विधान नहीं है । जटासिंहनन्दिके वराङ्गचरितगत श्रावकाचार में केवल इतना उल्लेख है कि दुःख दूर करनेके लिए व्रत, शील, तप, दान, संयम और अर्हत्पूजन करे । (देखो - भा० ३ पृ० श्लोक ४)
आचार्य जिनसेन रचित हरिवंशपुराण- गत श्रावकधर्मके वर्णनमें भी जिनपूजनका कोई वर्णन नहीं है । पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका गत श्रावकधमके वर्णनमें श्रावकके षट् कर्मोंमें देवपूजाका नामोल्लेख मात्र है, उसकी विधि आदिका कोई वर्णन नहीं है (देखो भा० ३ पृ० ४२७ श्लोक ७)
पद्मनन्दि-रचित देशव्रतोद्योतनके सातवें श्लोकमें देवाराधन - पूजनका उल्लेख है । श्लोक २० से २३ तक जिन-बिम्ब और जिनालय बनवाकर स्नपनके साथ जलादि द्रव्योंसे पूजन करके पुण्योपार्जनका विधान किया गया है । (देखो - भा० ३ पृ० ४३८)
देवसेन- रचित प्राकृत भावसंग्रह में पञ्चामृताभिषेक पूर्वक अष्टद्रव्योंमें पूजन करनेका विस्तृत वर्णन है । अभिषेकके अन्तर्गत इन्द्र, यम, वरुणादि देवोंके आवाहनका विधान किया गया है । तथा सिद्धचक्रयंत्रादिके उद्धार और पूजनका भी वर्णन है । (देखो - भा० ३ पृ० ४४७-४५२ गत गाथाएँ)
वामदेव - रचित संस्कृत भावसंग्रहमें भी सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत जिनाभिषेक और अष्टद्रव्यसे पूजनका वर्णन है । देखो - भा० ३ पृ० ४६६-४६७ गत श्लोक)
आचार्य कुन्दकुन्द - रचित माने जानेवाले रयणसारमें 'श्रावकोंका दान-पूजन करना मुख्य कर्त्तव्य है, ऐसा वर्णन होनेपर भी, तथा पूजनका फल देव पूज्य पद प्राप्त करनेका उल्लेख होनेपर भी पूजन विधिका कोई वर्णन नहीं है । (देखो - भाग ३ पृष्ठ ४८० गाथा १०, १३)
पं० गोविन्द - विरचित पुरुषार्थानुशासनमें सामायिक प्रतिमाके अन्तर्गत नित्य अर्हत्पूजनका जलादि शुद्ध द्रव्योंसे विधान करके पूजा-विधिको 'जिनेन्द्र संहिताओं' से जाननेको सूचना की गई है । (देखो - भाग ३ पृष्ठ ५२२-५२३ श्लोक ८६, ९७ )
जैन परम्परा में जल, गन्ध, अक्षत आदि आठ द्रव्योंसे पूजनकी परिपाटी रही है । यह बात ऊपर दिये गये विवरणसे प्रकट होती है, परन्तु उमास्वामी श्रावकाचारमें जो २१ प्रकारके उपचार वाले पूजनका विधान किया है, उसपर स्पष्ट रूपसे वैदिकी पूजा-पद्धतिका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है यह आगे विवरणसे पाठक स्वयं जान लेंगे ।
२२. पूजनको विधि
hayari विषयमें कुछ और स्पष्टीकरणकी आवश्यकता है, क्योंकि सर्वसाधारणजन इसे
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