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________________ ( १३१ ) प्रतिदिन करते हुए भी उसके वास्तविक रहस्यसे अनभिज्ञ हैं, यही कारण है कि वे यद्वा-तद्वा रूपसे करते हुए सर्वत्र देखे जाते हैं। __ यद्यपि इज्याओंका विस्तृत वर्णन सर्वप्रथम आचार्य जिनसेनने किया है, तथापि उन्होंने उसकी कोई व्यवस्थित प्ररूपणा नहीं की है। जहाँतक मेरा अध्ययन है, पूजनका व्यवस्थित एवं विस्तृत निरूपण सर्वप्रथम आचार्य सोमदेवने ही किया है। पूजनका उपक्रम देवपूजा करनेके लिए उद्यत व्यक्ति सर्वप्रथम अन्तःशुद्धि और बहिःशुद्धिको करे। चित्तकी चंचलता, मनकी कुटिलता या हृदयकी अपवित्रता दूर करनेको अन्तःशुद्धि कहते हैं। दन्तधावन आदि करके निर्मल एवं प्रासुक जलसे स्नानकर धुले स्वच्छ शुद्ध वस्त्र धारण करनेको बहिःशुद्धि कहते हैं।' पूजनका अर्थ और भेद जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्र, रत्नत्रय धर्म आदिकी आराधना, उपासना या अर्चा करनेको पूजन कहते हैं । आचार्य वसुनन्दिने पूजनके छह भेद गिनाकर उसका विस्तृत विवेचन किया है । (देखो भाग १ पृष्ठ ४६४-४७६, गाथा ३८१ से ४९३ तक) छह भेदोंमें एक स्थापना पूजा भी है। साक्षात् जिनेन्द्रदेव या आचार्यादि गुरुजनोंके अभावमें उनकी स्थापना करके जो पूजा की जाती है उसे स्थापना पूजा कहते हैं। यह स्थापना दो प्रकारसे की जाती है, तदाकार रूपसे और अतदाकार रूपसे । जिनेन्द्रका जैसा शान्त वीतराग स्वरूप परमागममें बताया गया है, तदनुसार पाषाण, धातु आदिको मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा-विधिसे उसमें अर्हन्तदेवकी कल्पना करनेको तदाकार स्थापना कहते हैं। इस प्रकारसे स्थापित मूर्तिको लक्ष्य करके, या केन्द्र-बिन्दु बनाकर जो पूजा की जाती है, उसे तदाकार स्थापना पूजन कहते हैं। इस प्रकारके पूजनके लिए आचार्य सोमदेवने प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजा-फल इन छह कर्तव्योंका करना आवश्यक बताया है । यथा १. अन्तःशुद्धि बहिःशुद्धि विदध्याद्देवतार्चनम् । आद्या दौश्चित्यनिर्मोक्षादन्या स्नानाद्यथाविधिः ।। ४२८ ॥ आप्लुतः संप्लुतः स्वान्तः शचिवासां विभूषितः । मौन-संयमसंपन्नः कुर्याहवार्चनाविधिम् ॥ ४३८ ॥ दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोचिताननः । असंजातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् ॥ ४३९ ॥ (देखो-भाग १, पृष्ठ १७१-१७२) कितने ही लोग बिना दातुन किये ही पूजन करते हैं, उन्हें 'दन्तधावनशुद्धास्यः' पदपर ध्यान देना चाहिए, जिसमें बताया गया है कि मुखको दातुनसे शुद्ध करके भगवान्की पूजा करे । इस सम्बन्धमें इसी श्लोकके द्वारा एक और पुरानी प्रथापर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि मुखपर वस्त्र बांधकर भगवान की पूजा करे । पुराने लोग दुपट्टेसे मुखको बाँधकर पूजन करते रहे हैं, बुन्देलखंडके कई स्थानोंमें यह प्रथा आज भी प्रचलित है । मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंमें भी मुख बाँधकर ही पूजा की जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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