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________________ निर्देश और स्वरूप-वर्णन कर जलादि अष्टद्रव्योंसे द्रव्यपूजनका, मंत्र जाप एवं पिण्डस्थ-पदस्थ आदि ध्यानोंके द्वारा भावपूजनका वर्णन वसुनन्दिके समान ही किया है। (देखो-भा० २ पृ० ४५६-४५८ गत श्लोक) १४. ब्रह्मनेमिदत्तने अपने धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचारमें जिनपुजनको अष्टद्रव्योंसे करनेका विधान और फलका विस्तृत वर्णन करते हुए भी उसके भेदोंका तथा विधिका कोई वर्णन नहीं किया है। (देखो-भा० २ पृ० ४९२-४९३) १५. पं० राजमल्लजीने अपनी लाटीसंहितामें पूजनके आह्वान, प्रतिष्ठापन, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन रूप पंच उपचारोंका नाम निर्देश करके जलादि अष्टद्रव्योंसे पूजनका विधान तो किया है, परन्तु उसकी विशेष विधिका कोई वर्णन नहीं किया है । इसी प्रकार त्रिकाल पूजनका निर्देश करते हुए भी अर्धरात्रिमें पूजन करनेका स्पष्ट शब्दोंमें निषेध किया है । (देखो-भा० ३, पृ० १३१-१३३ गत श्लोक) १६ उमास्वामीने अपने श्रावकाचारमें ग्यारह अंगुलसे बड़े जिन बिम्बको अपने घरके चैत्यालयमें स्थापन करनेका निषेध तथा विभिन्न प्रमाणवाले जिन-बिम्बके शुभाशुभ फलोंका विस्तृत वर्णन कर आह्वानादि पंचोपचारी पूजनका तथा स्नान, विलेपनादि इक्कीस प्रकारके पूजनका वर्णन किया है। यह इक्कीस प्रकारका पूजन अन्य श्रावकाचारोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता है। हाँ. वैदिकी पजा-पद्धतिमें सोलह उपचार वाले पूजनका विधान पाया जाता है, जिसे आगे दिखाया गया है। उन्होंने अष्टद्रव्योंसे पूजन करनेके फलका भी विस्तत वर्णन किया है और अन्तमें नामादि चार निक्षेपोंसे जिनेन्द्रदेवका विन्यास कर पूजन करनेका विधान किया है। (देखोभा० ३ पृ० १६०-१६७ गत श्लोक) १७. पूज्यपादकृत श्रावकाचारमें नामादि चार निक्षेपोंसे और यंत्र-मंत्र क्रमसे जिनाकृतिकी स्थापना करके जिनपूजनके करनेका विधान मात्र किया है । (देखो-भा० ३ पृ० १९८ श्लोक ७८) १८. व्रतसार श्रावकाचार-यह अज्ञात व्यक्ति-रचित केवल २२ श्लोक प्रमाण है और इसके १५ वें श्लोकमें प्रतिमा पूजनके साथ त्रिकाल वन्दना करनेका विधान मात्र किया गया है । (देखोभा० ३ पृ० २०५) १९. श्री अभ्रदेवने अपने व्रतोद्योतन श्रावकाचारमें अष्टद्रव्योंसे जिनदेव, श्रुत और गुरुके पूजनका विधान करके भावपूर्वक जिन-स्नपन करनेका विधान मात्र किया है। (देखो-भा० ३ पृ० २२६ श्लोक १८० । पृ० २२८ श्लोक १९८) २०. पद्मनन्दिने अपने श्रावकाचारसारोद्धारमें प्रोषधोपवासके दूसरे दिन जल-गन्धाक्षतादिसे जिन-पूजा करनेका विधान मात्र किया है (देखो-भा० ३ पृ० ३६२ श्लोक ३१३) इसके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी पूजाके विषयमें कुछ भी नहीं लिखा है। २१. जिनदेवने अपने उपासकाध्ययनमें दानका वर्णन करनेके पश्चात् पूजनका विधान किया है कि गृहस्थ चाँदी, सुवर्ण, स्फटिक आदिकी जिन-प्रतिमा निर्माण कराकर और उसकी प्रतिष्ठा कराके पूजा करे। पूजनके पूर्व दातुन करके मुख-शुद्ध कर, गालित जलसे स्नान कर देव-विसर्जन करने तक मौन धारण कर पूजन आरम्भ करे। अपने में इन्द्रका संकल्प कर आभूषणोंसे भूषित होकर, स्थापना मंत्रोंसे जिनदेवकी स्थापना करे। पुनः दिक्पालोंका आवाहन कर, क्षेत्रपालके १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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