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________________ ( १२८ ) अर्थात् जिन-भक्तिमें मनके लगानेको भावपूजा कहा है। अथवा गन्ध-पुष्पादिसे पूजन करनेको द्रव्यपूजा और जिनदेवके गुण के चिन्तन करनेको भावपूजा कहा है । ( देखो-भा० १ पृ० ३७३ श्लोक १२-१४) ८. वसुनन्दिने अपने श्रावकाचारमें पूजनके ६ भेद बतलाये हैं-१. नामपूजा, २. स्थापनापूजा, ३. द्रव्यपूजा, ४. क्षेत्रपूजा, ५. कालपूजा और ६. भावपूजा। अर्हन्त देवादिके नामोंका उच्चारण कर पुष्पक्षेपण करना नामपूजा है। तदाकार और अतदाकार-पूजनको स्थापनापूजा कहते हैं। इन्होंने तदाकारपूजनके अन्तर्गत प्रतिमा-प्रतिष्ठांका विस्तारसे वर्णन कर इस कालमें अतदाकार पूजनका निषेध किया है। जल-गन्धाक्षतादि अष्टद्रव्योंसे साक्षात् जिनदेवकी या उनकी मूर्तिकी पूजा करनेको द्रव्यपूजा कहा है। तीर्थंकरोंके जन्म, निष्क्रमण आदि कल्याणकोंके स्थानोंपर, तथा निर्वाण भूमियोंमें पूजन करनेको क्षेत्रपूजा कहा है। तीर्थंकरोंके गर्भादि पंच कल्याणकोंके दिन पूजन करनेको कालपूजा कहा है और जिनदेवके अनन्तचतुष्टय आदि गुणोंके कीर्तन करनेको भावपूजा कहा है। इसी भावपूजाके अन्तर्गत पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान करनेका भी विधान किया है । (देखो-भा० १ पृ० ४६४-४७४ गत गाथाएँ) ९. सावयधम्म दोहाकारने जल-गंधाक्षतादि अष्टद्रव्योंके द्वारा जिनपूजन करनेका विधान किया है । (देखो-भा० १ पृ० ४९९-५०० गत दोहा) १०.पं० आशाधरने सागारधर्मामृतमें महापुराणके अनुसार नित्यमह आदि ४ भेदोंका ही निरूपण किया है। किन्तु तदाकार और अतदाकार पूजनके विषयमें कोई निर्देश नहीं किया है। इन्होंने 'इज्याय वाटिकाद्यपि न दुष्यति' (भा० २, पृ० १३ श्लोक ४०) पूजनार्थ पुष्पादिकी प्राप्तिके लिए बगीची आदि लगानेका भी विधान किया है। तथा अष्टद्रव्योंसे पूजन करनेका फल बताकर प्रकारान्तरसे उनके द्वारा पूजन करनेका निर्देश किया है। ११.५० मेधावीने अपने धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें आह्वानन, स्थापन, सन्निधीकरण और अष्टद्रव्यसे पूजनके पश्चात् 'संहितोक्त मंत्रों से विसर्जन करनेका स्पष्ट विधान किया है । (देखोभा० २ पृ० १५६ श्लोक ५६-५७) पूजा करनेवाला किस प्रकारके जलसे स्नान करे, इसका भी पं० मेधावीने विस्तारसे वर्णन किया है । (देखो-भा० २ पृ० १५६ श्लोक ५१-५५) इन्होंने सोमदेवके समान ही दातुन करके पूजन करनेका विधान किया है । (देखो-भा० २ पृ० १५६, श्लोक ५०) पं० मेधावीने पूजनके वसुनन्दिके समान सचित्त, अचित्त और मिश्र ये तीन भेद किये हैं। तथा उन्हींके समान नाम, स्थापनादि छह भेद करके उनका विशद वर्णन किया है। (देखोभा० २ पृ० १५९ श्लोक ८५-१००)। १२. आचार्य सकलकीत्तिने अपने प्रश्न तर श्रावकाचारके बीस परिच्छेदमें जिनबिम्ब और जिन-मन्दिर-प्रतिष्ठाकी महिमा बताकर अष्टद्रव्योंसे पूजन करनेके फलका विस्तृत वर्णन किया है। किन्तु पूजनके भेदोंका और उसकी विधिका कोई वर्णन नहीं किया है। (देखो-भा० २, पृ० ३७७-३७८ गत श्लोक) १३. गुणभूषणने अपने श्रावकाचारमें नाम, स्थापनादि छह प्रकारको पूजाओंका नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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