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________________ ( १२७ ) द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ ४४२॥ सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।। ४४६॥ ( उक्त श्लोकोंका अर्थ प्रस्तुत संग्रहके भाग १ के पृ० १७२-१७३ पर देखें) उक्त श्लोकोंसे स्पष्ट है कि वे लोकमें प्रचलित वैदिक आचारको गृहस्थोंका लौकिक धर्म बताकर भी यह निर्देश कर रहे हैं कि ऐसी सभी लौकिक विधियाँ जैनियोंके प्रमाणरूप हैं, जिनके करनेसे न तो सम्यक्त्वकी हानि हो और न ही व्रतमें कोई दूषण ही लगे। २१. पूजन-पद्धतिका क्रमिक विकास ___ स्नपनके बाद आचार्य जिनसेनने गृहस्थोंका दूसरा कर्तव्य पूजन कहा है। उसका निरूपण करनेके पूर्व यह देखना आवश्यक है कि प्रस्तुत संग्रहके श्रावकाचारोंमें कहाँ किसने किस प्रकारसे इसपर प्रकाश डाला है। १. प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहमेंसे सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्रने चौथे शिक्षाव्रतके भीतर जिन-पूजन करनेका विधान किया है। पर वह जिन-पूजन किस प्रकारसे करना चाहिए, इसका उन्होंने कोई वर्णन नहीं किया है । (देखो-भा० १ पृ० १४ श्लोक ११९) २. स्वामी कात्तिकेयने प्रोषध पवासके दूसरे दिन 'पुज्जणविहिं च किच्चा' कह कर पूजन करनेका निर्देश मात्र किया है । (देखो-भा० १ पृ० २६ गा० ७५) ३. जिनसेनने भरतचक्री द्वारा ब्राह्मण-सृष्टि करनेके बाद इज्या (पूजा) के चार भेदोंका विस्तृत वर्णन कराया है, परन्तु पूजनकी विधि क्या है, इसपर कोई प्रकाश नहीं डाला है। (देखोभा० १ पृ० ३०-३१ श्लोक २६-३३) ४. अमृतचन्द्रने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें प्रभावना अंगका वर्णन करते हुए 'दान-तपो-जिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः' कहकर जिनपूजाका नामोल्लेख मात्र किया है। (देखो-भा० १ पृ० १०१ श्लोक ३०)। तथा उपवासके दूसरे दिन 'निवर्तयेद यथोक्तां जिनपूजां प्रासुकैद्रव्यैः' कह कर प्रासुक द्रव्योंसे पूजन करनेका विधान मात्र किया है। पूजनकी कोई विधि नहीं बतलायी है। (देखो-भा० १ पृ० ११५ श्लोक १२५) ५. सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें पूजनके भेद और उसकी विधिका विस्तृत वर्णन किया है, जिसे आगे बताया गया है। (देखो-भा० १पृ० १७१-१८५) ६. चामुण्डरायने अपने चारित्रसारमें अतिथिकी नवधा भक्तिमें 'अर्चन' का नाम निर्देश किया है । तथा इज्याके जिनसेनके समान ही नित्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पवृक्षमह, आष्टाह्निकमह इन चारमें ऐन्द्रध्वजमहको मिलाकर पाँच भेदोंका वर्णन किया है। परन्तु कौन सी पूजा किस विधिसे करनी चाहिए, इसका कोई खुलासा नहीं किया है। हाँ, जिनसेनके समान अपने घरसे जल-गन्धाक्षतादि ले जाकर जिन-पूजन करनेको नित्यमह कहा है और उसीके अन्तर्गत बलि और स्नपनका भी विधान किया है । (देखो-भा० १ पृ० २५८) ७. अमितगतिने अपने श्रावकाचारके बारहवें परिच्छेदमें पूजनके दो भेद किये हैं-द्रव्यपूजा और भावपूजा । उन्होंने वचन और कायके संकोच करनेको द्रव्यपूजा और मनके संकोच करनेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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