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________________ ( १२६ ) क्षेपण करे । पुनः ओं णमो लोए सव्वसाहूणं ह्रः मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा' बोलकर दोनों पैरोंपर पुष्प क्षेपण करे । ( भाग १, पृ० ४१२-४१३) सोमदेवने जिस सकलीकरणका विधान एक श्लोक-द्वारा सूचित किया है, उसका स्पष्टीकरण अमितगतिने उक्त मन्त्रों द्वारा सर्वाङ्ग शुद्धिके रूपमें किया है। उक्त सकलीकरणके मंत्रोंमें प्रयुक्त 'ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः' ये बीजाक्षर वैदिक सम्प्रदायके मंत्रोंमें भी पाये जाते हैं। जैन सम्प्रदायमें इन पाँचोंके साथ नमस्कार मंत्रका एक एक पद जोड़कर जैन संस्करण कर दिया गया है। - अमितगतिने नियत परिमाणमें किये गये मंत्र जापके दशमांश रूप हवनका भी विधान किया है। (भाग १, पृ० ४१०, श्लोक ३९ तथा नीचेका गद्यांश ) अमितगतिसे पूर्वके किसी श्रावकाचारमें इस दशांश होम करनेका विधान नहीं है। जिनसेनने इतने क्रिया कांड और उनके मंत्रोंको लिखते हुए भी दशमांश होम करनेका कोई निर्देश नहीं किया है। देवसेनने प्राकृत भावसंग्रहमें पूजनके पूर्व आचमन और सकलीकरणका विधान किया है। (भाग ३, पृ० ४४७, गाथा ७८ और ८५ ) पूजनके बाद मंत्र-जापका उल्लेख करते हुए भी होम करनेका कोई उल्लेख नहीं किया है। वामदेवने भी संस्कृत भावसंग्रहमें देवसेनका अनुसरण करते और मंत्र जापका उल्लेख करते हुए भी होम करनेका कोई निर्देश नहीं किया है। ( देखो-भाग ३, पृ० ४६७, श्लोक २८ और ३४) उमास्वामीने अपने श्रावकाचारमें अपने चैत्यालयस्थ जिनबिम्बकी पूजाके प्रकरणमें 'पूजाहोम-जपादिका' उल्लेख मात्र किया है । यथा प्रासादे ध्वजनिर्मुक्ते पूजाहोमजपाादिकम् ।। सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यों ध्वजोच्छ्यः ॥ १०७ ॥ अर्थात्-ध्वजा-रहित प्रासाद ( भवन ) में किया गया, पूजा-होम और जपादि सर्व व्यर्थ जाता है । अतः जिन-भवनपर ध्वजारोहण करना चाहिए। ( भाग ३, पृ० १६१) इतने मात्र उल्लेखके उन्होंने होम-जपादिके विषयमें और कुछ भी नहीं कहा है। पण्डित गोविन्दने अपने पुरुषार्थानुशासनमें सामायिक प्रतिमाके वर्णनमें जलस्नान और मंत्रस्नान करके सकलीकरणादि वेत्ता श्रावकको जिनपूजन करनेको निर्देशमात्र किया है। (भाग ३, पृ० ५२३, श्लोक ९६ ) उक्त श्रावकाचारोंके सिवाय परवर्ती अन्य श्रावकाचारोंमें भी आचमन, सकलीकरण और होम करनेका कोई विधान नहीं पाया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सोमदेवने जिस आचमन और सकलीकरणादिका निर्देशमात्र किया था, उसे परवर्ती श्रावकाचार-रचयिताओंने उत्तरोत्तर पल्लवित किया है। ये सब विधिविधान वैदिक सम्प्रदायसे लिये गये हैं, इसका स्पष्ट संकेत सोमदेवके उक्त प्रकरणमें दिये गये निम्नांकित श्लोकसे होता है । यथा- . एतद्विधिन धर्माय नाधर्माय तदक्रिया। दर्भपुष्पाक्षतश्रोत्रवन्दनादिविधानवत् ॥ ४४१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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