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________________ ( १२३ ) चला आ रहा है। फलस्वरूप बनजी ठोलिया ग्रन्थमालासे प्रकाशित अभिषेक पाठ-संग्रहका परायण करनेपर जो तथ्य सामने आये हैं, वे इस प्रकार हैं पं० आशाधरने 'नित्यमहोद्योत' नामक अभिषेक पाठकी रचना की है। सिंहासनके चारों कोणोंमें रखे हुए कलशोंपर उत्प्रेक्षा करते हुए उन्होंने लिखा है - क्षीरोदाद्याः समुद्राः किमुत जलमुचः पुष्करावर्तकाद्याः किं वाद्यवं विवृत्ताः सुरसुरभिकुचा विद्भिरित्यूहमानैः । पीयूषोत्सारि-वारि-प्रसर-भरकिलदिग्गजवातमेतेस्तन्मः यस्तैरुदस्तैर्युगपदभिषवं श्रीपतेः पूर्णकुम्भः ॥ ( अभिषेक पाठ संग्रह, पृ० २३९ श्लोक १३०) अर्थात्-अभिषेकके लिए सिंहासनके चारों कोणोंमें जो जलसे भरे हुए कलश स्थापित किये गये हैं, उनपर उत्प्रेक्षा की गई है कि क्या क्षीरसागरको आदि लेकर चार समुद्र हैं, अथवा पुष्करावर्त आदि चार जातिके मेघ हैं, अथवा सुरभि ( कामधेनु ) के चार स्तन हैं, अथवा अमृतका भी तिरस्कार करनेवाले जलमें कोड़ा करते हुए दिग्गजोंका समूह ही इस अभिषेकके समय उपस्थित हुआ है ? इस प्रकारके जलपूर्ण प्रशस्त कुम्भोंसे हम श्रीपति जिनेन्द्रका अभिषेक करते हैं। यद्यपि इस पद्यमें चारों कलशोंके लिए चार प्रकारके उपमानोंको केवल कल्पना ही की गई है, तथापि 'क्षीरोदाद्याः समुद्राः' पद खासतौरसे विचारणीय है। इन दोनों पद्योंका टीकाकार श्रुतसागरसूरिने अर्थ किया है ____ क्षीरोदाद्याः क्षीरोदप्रभृतयः, समुद्राः चत्वारः सागराः अद्य घटरूपप्रकारेण पर्यायान्तरं प्राप्ताः। अर्थात्-इस अभिषेकके समय क्षीरसागर आदि चार समुद्र क्या घटरूप पर्यायको धारण कर उपस्थित हुए हैं ? यह उत्प्रेक्षा क्षीरसागर, धृतवरसागर आदिपर की गई है और इसे कोरी उत्प्रेक्षा ही नहीं माना जा सकता, क्योंकि जहाँ अनेक देव क्षीरसागरसे जल भरकर ला रहे हों, वहाँ भक्तिसे प्रेरित अन्य देव का उससे भी आगे स्थित घृतसागर आदिसे भी जल भरकर लाना संभव है। इसको पुष्टि उक्त अभिषेक पाठके निम्न पद्यसे होती है। वह पद्य इस प्रकार है अम्भोधिभ्यः स्वयम्भूरमणपृथुनदीनाथपर्यन्तकेभ्यो ___ गङ्गादिभ्यः सरिद्भ्यः कुलधरणिधराधित्यकोद्भूतिभाग्भ्यः । पद्मादिभ्यः सरोभ्यः सरसिरुहरजःपिञ्जरेभ्यः समन्ता दानीतैः पूर्णकुम्भैरनिमिषपतिभिर्योऽभिषिक्तः सुराद्रौ। अर्थात् जिस जिनेन्द्रदेवका अभिषेक स्वयम्भूरमणान्त समुद्रोंसे, हिमवान् आदि कुलाचलोंसे निकली हुई गंगादि नदियोंसे और कमल-परागसे पिंजरित पद्म आदि सरोवरोंसे लाये गये जलोंसे भरे हुए कलशोंसे सुमेरुपर्वतपर किया गया है, उन्हींका मैं सिंहासनके चारों कोणोंपर स्थित कलशोंसे करता हूँ। यह आगेके ६७ पद्यका भाव है। ( अभिषेक पाठ संग्रह पृ० २९ श्लोक ६६-६७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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