SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२२ ) पद्मचरित -दधिकुम्भेजिनेन्द्राणां यः करोत्यभिषेचनम् । (पर्व ३२) दध्याभकुट्टिमे स्वर्गे जायते स सुरोत्तमः ॥ १६७ ॥ ४.पउमचरिय-एत्तो घियाभिसेयं जो कुणइ जिणेसरस्स पययमणो। (उद्देश ३२) सो होइ सुरहिदेहो सुर-पवरो वरविमाणम्मि ।। ८१ ।। पद्मचरित -सर्पिषा जिननाथानां कुरुते योऽभिषेचनम् । (पर्व ३२) कान्ति-द्युतिप्रभावाढ्यो विमानेशः स जायते ॥ १६८ ॥ ५. पउमचरिय-अभिसेयपभावेणं बवे सुव्वंत्तिऽणतविरियाई । (उद्देश ३२) लद्धाहिसेयरिद्धी सुर-वर-सोक्खं अणुहवंति ॥ ८२ ॥ पद्मचरित -अभिषेकप्रभावेण श्रूयन्ते बहवो बुधाः । (पर्व ३२) पुराणेऽनन्तवीर्याद्याः धु-भूलब्धाभिषेचनाः ॥ १६९ ।। भावार्थ-जो सुगन्धित जलसे जिनेन्द्रदेवका अभिषेक करता है, वह जहाँ भी उत्पन्न होता है, वहाँपर अभिषेकको प्राप्त होता है। जो दूधको धारासे जिनदेवोंका अभिषेक करता है वह दूधके समान धवल आभावाले देव विमानमें उत्पन्न होता है। जो दही भरे कलशोंसे जिनेश्वरोंका अभिषेक करता है, वह दहीके समान आभाके धारक कुट्टिम ( फर्श ) वाले स्वर्गमें उत्तम देव होता है। जो जिननाथका धीसे अभिषेक करता है वह कान्ति-द्युतिसे युक्त सुगन्धित देहका धारक विमानका स्वामी देव होता है। पुराणमें ऐसा सुना जाता है कि अभिषेकके प्रभावसे अनन्तवीर्य आदि अनेक बुधजन स्वर्ग और भूतलपर अभिषेक-वैभव पाकर देवोंके उत्तम सुखको प्राप्त इस सम्बन्धमें सबसे बड़ी बात तो समानताकी यह है कि 'पउमचरिय' के उद्देशकी संख्या और 'पद्मचरित' की पर्व संख्या एक ही है। गाथाओंकी संख्या और श्लोकोंको संख्या भी ५-५ ही है । अनुक्रमांकमें जो अन्तर है वह इसके पूर्व वर्णित कथा भागके पल्लवित करनेके कारण है।। वराङ्गचरित और हरिवंशपुराण-गत श्रावकधर्मके वर्णनमें पञ्चामृताभिषेकका कोई वर्णन नहीं है। किन्तु आगे जाकर एक कथाके प्रसंगमें उन्होंने भी पञ्चामृताभिषेकका वर्णन किया है । जटासिंहनन्दि और जिनसेन यतः रविषेणसे लगभग एक शताब्दी पीछे हुए हैं, अतः संभव है कि उन्होंने रविषेणका अनुकरण किया हो। वस्तु-स्थिति जो भी हो, परन्तु वर्तमानमें उपलब्ध दिगम्बर-श्वेताम्बर साहित्यके अध्ययन करनेपर इतना तो निश्चितरूपसे ज्ञात होता है कि मूति-पूजन श्वेताम्बर जैनोंमें पूर्व में प्रचलित सोमदेवके उपासकाध्ययनकी प्रस्तावनामें पञ्चामृताभिषेककी चर्चा करते हुए उसके सम्पादक श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखा है कि इन्द्रने तो सुमेरु पर्वतपर केवल क्षीरसागरके जलसे ही भगवान्का अभिषेक किया था, फिर भी जैन परम्परामें घी, दूध, दही आदिसे अभिषेककी परम्परा कैसे चल पड़ी, यह प्रश्न विचारणीय है । ( प्रस्तावना पृ० ५४ ) वसुनन्दि-श्रावकाचारके सम्पादनकालसे ही उक्त प्रश्न मेरे भी सामने रहा है और इस श्रावकाचारके सम्पादन प्रारम्भ करनेके समयसे तो और भी अधिक मस्तिष्कको उद्वेलित करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy