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________________ ( १२१ ) २८. श्रावकाचार-संग्रहके तीसरे भागके अन्तमें दिये गये परिशिष्टके अन्तर्गत कुन्दकुन्दके चारित्रपाहुडमें, उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रमें, रविषेणके पद्मचरित-गत, जटासिंहनन्दिके वराङ्गचरितगत, और जिनसेनके हरिवंश-गत श्रावकधर्मके वर्णनमें पुजन और अभिषेकका कोई वर्णन नहीं है । निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि पञ्चामृताभिषेकका विधान सोमदेवसे पूर्व किसी भी श्रावकाचार-कर्ताने नहीं किया है। पर-वर्ती श्रावकाचार-रचयिताओंमेंसे भी अनेकोंने उसका कोई विधान नहीं किया है, जिन्होंने पञ्चामृताभिषेकका वर्णन किया भी है, उनपर सोमदेवके वर्णनका प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। __ इस सन्दर्भ में सबसे अधिक विचारणीय बात तो यह है कि आचार्य रविषेणने पद्मपुराण नामसे प्रसिद्ध अपने पद्मचरितके चौदहवें पर्वके भीतर श्रावक धर्मके वर्णनमें बारह व्रतोंका स्वरूप कहते हुए और अन्य आवश्यक कर्तव्योंको बताते हुए पूजन और अभिषेकका कोई वर्णन नहीं - किया है। जबकि उन्होंने आगे जाकर राम-लक्ष्मणके वन-गमन कर जानेसे शोक-सन्तप्त भरतको संबोधित करते हुए मुनिराजके मुखसे सागार धर्मका उपदेश दिलाकर जिन-पूजन और पञ्चामृताभिषेक करनेका विधान कराया है ? पद्मचरित सोमदेवके यशस्तिलंकचम्पूसे लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व रचा गया है । इससे पूर्व-रचित किसी भी दि० जैन चरित, पुराण आदिमें पञ्चामृतभिषेकका कोई वर्णन अन्वेषण करनेपर भी नहीं मिलता है। किन्तु श्वेताम्बर माने जानेवाले विमल सूरि द्वारा प्राकृत-भाषामें रचित 'पउमचरिय' में उक्त पञ्चामृताभिषेकका वर्णन बहुत स्पष्टरूपसे किया गया मिलता है। विमल. सूरिका समय इतिहासज्ञोंने बहुत छान-बीनके पश्चात् विक्रमकी पांचवीं शती निश्चित किया है अतः वे रविषेणसे दो शताब्दीपूर्वके सिद्ध होते हैं। विमलसूरिके 'पउमचरिय' और रविषेणके 'पद्मचरित' को सामने रखकर दोनोंका मिलान करनेपर स्पष्टरूपसे ज्ञात होता है कि रविषणका 'पद्मचरित' प्राकृत पउमचरियका पल्लवित संस्कृत रूपान्तर है। यह बात नीचे उद्धृत दोनोंके पञ्चामृताभिषेकके वर्णनसे ही पाठक जान लेंगे। १. पउमचरिय-काऊण जिनवराणं अभिसेयं सुरहिगंधसलिलेण । (उद्देश ३२) सो पावइ अभिसेयं उप्पज्जइ जत्थ जत्थ परो॥७८ ॥ पद्मचरित -अभिषेकं जिनेन्द्राणां कृत्वा सुरभिवारिणा। (पर्व ३२) अभिषेकमवाप्नोति यत्र यत्रोपजायते ।। १६५ ॥ २. परमचरिय-खीरेण जोऽभिसेयं कुणइ जिणिंदस्स भत्तिराएण । (उद्देश ३२) सो खीरविमलधवले रमइ विमाणे सुचिरकालं ॥ ७९ ॥ पद्मचरित -अभिषेकं जिनेन्द्राणां विधाय क्षीरधारया। (पर्व ३२) विमाने क्षीरधवले जायते परमद्युतिः ॥ १६६ ॥ ३.पउमचरिय-दहिकुंभेसु जिणं जो ण्हवेइ दहिकोट्टमे सुरविमाणे।। (उद्देश ३२) उप्पज्जइ लच्छिधरो देवो दिव्वेण रूवेणं ॥ ८० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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