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( १२४ ) उक्त पद्यसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि सौधर्म और ऐशान इन्द्र भले ही केवल क्षीरसागरके जलसे अभिषेक करते हों ? परन्तु अन्य देव स्वयम्भूरमणान्त समुद्रोंसे, गंगादि नदियोंसे और पद्म आदि सरोवरोंसे लाये गये जलोंसे भी सुमेरुगिरिपर तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक करते रहे हैं। गुणभद्रके उक्त कथनकी पुष्टि अय्यपार्य-रचित अभिषेक पाठके निम्न पद्यसे भी होती है
श्रीमत्पुण्यनदी-नदाब्धि-सरस-कूपादितीर्थाहतै
हस्ताहस्तिकया चतुर्विधसुरानीकैरिवार्यापितैः । रत्नालङ्कृतहेमकुम्भनिकरानीतैर्जगत्पावनैः
कुर्वे मज्जनमम्बुर्भािजनपतेस्तृष्णापहैः शान्तये ।। __ अर्थात्-पवित्र नदियोंसे, समुद्रोंसे, सरोवरोंसे और कूप आदि तीर्थोसे मानों चारों प्रकारके देवों द्वारा हाथों-हाथ ला कर समर्पित किये गये जगत्पावन, रत्नालंकृत, तृष्णाछेदक इन सुवर्ण कुम्भोंके जलोंसे मैं शान्तिके लिए जिनपतिका मज्जन करता हूँ। ( अभिषेक पाठ संग्रह पृ० ३०५ श्लोक ५१)
अय्यपार्यके इस पद्यसे भी सभी पवित्र नदी, समुद्रादिकके जलोंसे तीर्थकरोंका अभिषेक किया गया प्रमाणित होता है।
यद्यपि गुणभद्र, अय्यपार्य आदि बहुत अर्वाचीन हैं, तो भी ऐसा संभव है कि उनके सामने भी कोई प्राचीन आधार रहा हो और उसी आधारपरसे भक्तोंने घृतसागर आदिके स्थानपर घी दही आदिसे अभिषेक करना प्रारंभ कर दिया हो तथा उसी प्रचलित परम्पराका अनुसरण विमलसूरि, रविषण और जटासिंहनन्दिने किया हो।
व उपर्युक्त सभी आधारोंसे तीर्थंकरोंके अभिषेककी हो पुष्टि होती है। और क्षीरसागरसे लेकर भले ही आगेके घृतसागर आदिके जलोंसे अभिषेक किया गया हो, पर उन समुद्रोंका जल जल ही था, न कि दूध, घी आदि । दूसरे किसी भी शास्त्राधारसे समवशरणस्थ अरहन्तदेवके अभिषेक करनेकी पुष्टि नहीं होती है.। कहींपर भी कोई ऐसा उल्लेख देखने में नहीं आया है जिसमें कि दीक्षा लेनेके पश्चात् मोक्ष जाने तककी अवस्थामें किसी तीर्थंकरादिका पञ्चामृताभिषेककी तो बात हो क्या, जलसे भी अभिषेक करनेका वर्णन हो ?
पं० आशाधरने मध्याह्नपूजनके समय जिस 'आश्रुत्य स्नपन' इत्यादि श्लोकोंके द्वारा जिनप्रतिमाके दही, दूध आदिसे अभिषेक करनेका विधान किया है, वही श्लोक उन्होंने प्रतिष्ठासारोद्धारमें भी दिया है, यह पहिले बता आये हैं। किन्तु प्रतिष्ठासारोद्धारमें अचलप्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधिको समाप्त करनेके पश्चात् 'अथ चलजिनेन्द्रप्रतिबिम्बप्रतिष्ठाचतुर्थदिन स्नपन क्रिया' इस उत्थानिकाके साथ उक्त श्लोक दिया है। अर्थात् अब चलजिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठाके चौथे दिन की जानेवाली स्नपन क्रिया कही जाती है। उनकी इस उत्थानिकासे सिद्ध है कि दही, दूध आदिसे अभिषेकका विधान चलप्रतिमाकी प्रतिष्ठाके समय था। उनके ही शब्दोंसे इतना स्पष्ट विधान होते हुए भी उन्होंने प्रतिदिन की जानेवाली माध्याह्निक पूजनके समय उक्त विधान कैसे कर दिया? यह एक आश्चर्यकारक विचारणीय प्रश्न है।
गहराईसे विचार करनेपर यही प्रतीत होता है कि नव-निर्मित जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठाके समय उसका दूध, दही आदिसे अभिषेक किया जाना उचित है, अर्थात् जिस धातु या पाषाणादिसे उस
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