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________________ । ११५ ) होकर मनुष्य लोकमें उक्त प्रकारके मनोवांछित भोगोंको भोगता है, पर अन्तमें वह दुर्गतिका ही पात्र होता है । यह प्रथम निदान है। २. जो साध्वी या श्राविका व्रत, नियम, संयमादिका पालन करते हुए किसी राज-रानीको नाना प्रकारके सांसारिक सुखोंको उपभोग करती देखकर यह इच्छा करती है कि यदि मेरे व्रत-शीलादिका कुछ फल हो तो आगामी भव में मुझे भी ऐसे ही काम-भोग प्राप्त हों, वह मरकर स्वर्गमें देवी होकर मनुष्य लोकमें राज-रानी बनती है और वहाँ पर काम-भोगोंमें आसक्त रहकर मरण करके दुर्गतियोंके दुःख भोगती है । यह दूसरा निदान है। उक्त दोनों प्रकारके निदान करनेवाले मनुष्योंको मनुष्य जन्ममें धर्म सुननेका अवसर मिलनेपर भी धर्म धारण करनेका भाव जाग्रत नहीं होता है। ___३. कोई साधु या श्रावक व्रत-नियमादिका पालन करते हुए कामोद्रेकसे ब्रह्मचर्य पालन करनेमें असमर्थ हो किसी महारानीको नाना प्रकारके काम-सुख भोगती हुई देखकर विचार करेकि मनुष्यका जन्म बड़ा संकटमय रहता है, युद्धोंमें जाकरके शस्त्रोंके आघात सहन करने पड़ते हैं, नाना प्रकारके दुःखोंको सहते हुए धनोपार्जन करना पड़ता है, इससे तो स्त्रीका जीवन सुखमय है, मेरे वत-शीलादिका कुछ भी फल हो तो मैं अगले जन्ममें ऐसी भाग्यशालिनी स्त्री बनूं । इस निदानके फलसे वह आगामी भवमें भाग्यशालिनी स्त्री बन जाता है, पर अन्तमें दुर्गतियोंके दुःख भोगना पड़ते हैं। ४ कोई साध्वी या श्राविका व्रत-शील आदिका पालन करते हुए विचार करे कि स्त्रीका जीवन दुःखमय है, वह स्वतन्त्रतासे पतिकी इच्छाके बिना कुछ भी काम नहीं कर सकती है और न कहीं आ जा सकती है, पुरुषोंका जीवन सुखमय है यदि मेरे वतादिका कुछ भी फल हो तो मैं आगामी भवमें पुरुषका जन्म धारण करूँ ? उक्त निदानके फलसे वह आगामी भवमें पुरुष रूपसे जन्म लेती है। उक्त तीसरे और चौथे निदान करनेवालोंका धर्म सुननेका अवसर मिलनेपर भी धर्म धारण करनेके भाव नहीं होते हैं और अन्त में दुर्गतिके दुःख भोगना पड़ते हैं। ५. कोई साधु या श्रावक व्रत-तपश्चरणादि करते हुए भी कामोद्रेकसे विचार करे कि मानुषी स्त्रियोंका देह मल-मत्रादिसे भरा है, सदा दुर्गन्ध आती है। किन्तु देवियोंकी देह मल-मत्रादिसे रहित एवं सुगन्धित, होता है, यदि मेरे व्रतादिका फल हो तो मैं देवियोंके साथ उत्तम भोगोंको भोगूं ? इस प्रकारके निदान वाला स्वर्गमें देवियोंके साथ दिव्य सुखका उपभोग करता है और वहाँसे मनुष्य लं,कमें आकर मनुष्य होता है वह धर्मको सुन करके भी उसे धारण नहीं करता है। ६. कोई साधु या श्रावक व्रतादिका पालन करते हुए मनुष्यके काम-भोगोंको अनित्य अध्रुव सोचकर उनसे विरक्त हो स्वर्गीय काम-भोगोंको नित्य शाश्वत समझ करके उनके भोगनेकी इच्छा करे तो उसके फलसे वह देवलोकमें किल्विषिक आदि नीच देवोंमें उत्पन्न होकर संसार-परिभ्रमण करता है। ७. जो साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका व्रत-तपश्चरण आदि करते हुए हीन जातिके देव देवियोंके सुखोंको हीन समझकर उनसे ग्लानि कर उत्तम जातिके देव देवियोंके सुख भोगनेकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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