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________________ ( ११६ ) कामना करते हैं, वे मरकर उत्तम जातिके देव-देवियोंमें उत्पन्न होकर वहाँके सुख भोगते हैं, पुनः वहाँसे च्युत होकर मनुष्य हो कर केवलि प्ररूपित धर्मको सुनकर उसपर श्रद्धा करते हैं, पर व्रत शीलादिका पालन नहीं कर पाते हैं। हाँ, सम्यक्त्वके प्रभावसे वे मरकर देवलोकमें उत्पन्न होते हैं। ८. जो साधु व्रतोंको भली-भांतिसे पालन करते हुए मनुष्यके काम भोगोंको अनित्य, दुःखदायी और भव-भ्रमणका कारण जानकर उनसे विरक्त हो करके भी यह विचारता है कि यदि मेरे व्रत-संयमादिका फल हो तो मैं अग्रिम भवमें राजवंश, उग्रवंश आदि उत्तम कुलमें जन्म लूं और वहाँ पर आद, श्रावक धर्मका पालन करूँ? क्योंकि साधु धर्मकी साधना बड़ी कठिन है। ऐसे निदान वाला देवलोकमें उत्पन्न होकर उत्तम वंशमें जन्म लेता है और वहाँ सद्-धर्मको सुनकर श्रावक धर्मका भली-भाँतिसे पालन करता है, पर वह सकल संयमको धारण नहीं कर पाता है। ९. जो साधु या श्रावक व्रतोंका पालन करता हुआ सोचता है कि मनुष्यके ये काम-भोग अनित्य, दुःखदायी और भव-भ्रमण-कारक हैं। मनुष्योंमें भी बड़े कुलोंमें जन्म लेने पर कुटुम्बकी विडम्बनासे मुक्ति पाना बड़ा कठिन है। यदि मेरे व्रतादिका कुछ फल हो तो मैं अगले मनुष्य भवमें निर्धन, तुच्छ या भिक्षुक कुलमें जन्म लेऊँ ? जिससे कि जिन-दीक्षाको धारण करनेके लिए सरलताके गृहस्थीके बन्धनसे छूट सकूँ । ऐसे निदान वाला देवलोकमें उत्पन्न होकर दरिद्रादि कुलमें उत्पन्न होता है और सद्-धर्म सुनकर जिन दीक्षा आदि धारण कर लेता है, भक्त-प्रत्याख्यान संन्यासको भी धारण करता है परन्तु उसी भवसे मोक्ष नहीं जा सकता। जो साधु व्रत संयमादिको निर्दोष, निराकांक्ष होकर बिना किसी भोग-लालसाके पालन करते हैं और सदा संसारके दुःखदायी स्वरूपका चिन्तन करते हुए आत्म-ध्यानमें संलग्न रहते हैं, उनमेंसे अनेक तो उसी भवसे ही कर्म-मुक्त होकर सिद्ध पदको प्राप्त करते हैं और अनेक साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका देवलोकमें उत्पन्न हो वहाँसे च्युत हो मनुष्य होकर प्रवजित हो मुक्ति प्राप्त करते हैं । (दशाश्रुतस्कन्ध, आयतिठाणदसा १०) २०. स्नपन श्री सोमदेवसूरिने उपासकाध्ययनमें तथा श्री जयसेनाचार्यने अपने धर्मरत्नाकरमें देव-पूजाके अन्तर्गत छह कार्य करनेका विधान किया हैयथा-स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः।। षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु मेहिनाम् ॥ (धर्मर० २०, श्लोक १५९६ ) अर्थात्-गृहस्थोंको देवसेवाके समय स्नपन, पूजन, स्तोत्र-पाठ, जप, ध्यान और श्रुतस्तवन करना चाहिए। अतः सर्वप्रथम यह देखना आवश्यक है कि स्नपनसे अभिप्राय जलाभिषेकसे है, या पञ्चामृताभिषेकसे। पञ्चामृताभिषेक या जलाभिषेक प्रस्तुत श्रावकाचार-संग्रहमें संकलित श्रावकाचारोंका एक ओरसे पर्यवेक्षण करनेपर पाठक यह निष्कर्ष निकाल सकेंगे कि किस-किस आचार्यने पुजनके साथ जलाभिषेक या पञ्चामृताभिषेकका वर्णन किया है और किस-किसने नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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